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( अपनी बात
नयज्ञान एवं द्वारा मेरा
उपरोक्त यथार्थ निर्णय प्राप्त करने के लिये उसकी उपयोगिता समझ कर उसके यथार्थ प्रयोग आत्मा वर्तमान में रागी द्वेषी दिखाई देने पर भी, वह आत्मा द्रव्यदृष्टि के साथ-साथ पर्याय से भी अरहंत के समान है ऐसा कैसे निर्णय में आता है, वह विधि भाग 3 में आवेगी । ज्ञानस्वभावी आत्मा का, स्वभाव ही मेरे स्वज्ञेय को तन्मयतापूर्वक एवं परज्ञेयों को अतन्मयतापूर्वक जानने का है। अतः परज्ञेय मात्र ही उपेक्षणीय ज्ञेयमात्र हैं। अपनी पर्याय भी परज्ञेय ही है, स्वज्ञेय तो मात्र अपना ध्रुव तत्व ही है आदि-आदि विषयों को भी समझाया जावेगा। इस निर्णय में उपयोगी निश्चय, व्यवहारनय का यथार्थ ज्ञान एवं नय एवं दृष्टि का अंतर समझकर कर्तृत्व बुद्धि का अभिप्राय नाश करने का उपाय तथा आकुलता की उत्पत्ति के कारण व उसके उत्पादक कारणों का अभाव करने का उपाय आदि अनेक विषयों के समावेश करने का संकल्प है।
IV]
भाग 3 के पश्चात भाग 4 को भी 2 भाग में विभक्त करने का विचार है। पूर्वार्द्ध का विषय होगा " यथार्थ निर्णय द्वारा सविकल्प आत्मज्ञान" और उत्तरार्द्ध का विषय होगा "सविकल्प आत्मज्ञानपूर्वक निर्विकल्प आत्मानुभूति" 1
उपरोक्त भाग का विषय उनके नाम के द्वारा ही आपको ज्ञात हो जाना चाहिये । प्रायोग्यलब्धि प्राप्त जीव को किस प्रकार सविकल्प आत्मज्ञान प्राप्त हो जाता है। यह पूर्वार्द्ध का विषय होगा एवं करणलब्धि प्राप्त जीव सविकल्प आत्मज्ञान द्वारा किस प्रकार निर्विकल्प आत्मानुभूति को प्राप्त कर लेता है यह विधि उत्तरार्द्ध में स्पष्ट करने का सकल्प है।
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