Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 2 Author(s): Nemichand Patni Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 8
________________ II ] ( अपनी बात हुवे सम्बन्धों को तोड़ कर, हुवे, अपने-आप में निम्न प्रकार की का उपाय बताया गया था, कि पहिचानकर, अन्य पदार्थों के साथ अपनी कल्पना से माने अपनी स्वतंत्र सत्ता स्वीकारते श्रद्धा जाग्रत करने "जगत् के सभी द्रव्य उत्पाद व्यय धौव्ययुक्तंसत् है" उन ही में, मैं भी स्वयं एक सत् हूँ।" मेरी सत्ता मेरे स्व चतुष्टय में है। अतः मेरी सत्ता में किसी का प्रवेश, हस्तक्षेप है ही नहीं एवं हो सकता भी नहीं है ऐसी स्थिति में मेरा भी जगत् के किसी भी द्रव्य के कार्यों में किसी प्रकार का भी हस्तक्षेप करने का अधिकार कैसे हो सकता है? इस प्रकार जगत् के सभी द्रव्यों के परिणमनों से मेरा कोई संबंध नहीं होने के कारण वे मेरे लिये मात्र पर, उपेक्षणीय एवं ज्ञेय मात्र हैं। अतः उनके परिणमनों के कारण मेरे कोई प्रकार की आकुलता उत्पन्न होने का कारण ही नहीं रहता। मेरी आत्मा का भला अथवा बुरा अर्थात् हानि अथवा लाभ पहुँचाने वाला एकमात्र मैं स्वयं ही हूँ उसी प्रकार मेरा सुधार भी मैं स्वयं ही कर सकता हूँ। अतः मेरे कल्याण के लिये मुझे मेरे में ही अनुसंधान करके यथार्थ मार्ग खोजना पड़ेगा एवं अपने में ही प्रगति करनी पड़ेगी । " अतः उपरोक्त श्रद्धा जाग्रत कर लेने पर आत्मार्थी अपने आत्म द्रव्य में ही यथार्थ मार्ग खोजना प्रारंभ करता है। अन्तर्दशा, तत्व निर्णय एवं भेद विज्ञान। " के शीर्षक पूर्वक आत्मा के अनुसंधान करने का उपाय इस पुस्तक में बताया गया है। उसके माध्यम से आत्मा, जब अपनी अन्तर्दशा का अनुसंधान करता है तो वहां उसको एक ओर तो त्रिकाली, स्थायी भाव ऐसा ध्रुवांश दिखाई देता है और दूसरी ओर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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