Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 2 Author(s): Nemichand Patni Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 9
________________ अपनी बात ) [ III भाव, क्षण-क्षण में बदलता हुआ परिवर्तनशील - अस्थाई पर्यायांश दिखाई देता है। आचार्यों ने भी द्रव्य की अर्थात् सत् की परिभाषा भी "उत्पाद व्यय ध्रौव्ययुक्त सत्" ही बताई है। उक्त सत्रूप द्रव्य में हेय, उपादेय एवं श्रद्धेय की खोज करने के लिए सात तत्व के माध्यम से सत् की यथार्थ स्थिति इस पुस्तक में समझाई है । " उन सात तत्वो में, जीव तत्व तो ध्रुवांश है, वह अहं के रूप में श्रद्धेय तत्व है। अजीव तत्व तो मात्र उपेक्षणीय परज्ञेय तत्व है। आश्रवबंध पर्यायांश है एवं हेय तत्व हैं। संवर निर्जरा, पर्यायांश है, एवं उपादेय तत्व हैं। मोक्ष तत्व तो परम उपादेय तत्व है। इन्हीं में आश्रवबंध तत्व के विशेष भेद पुण्य व पाप मिलाकर नवतत्व भी कह दिये जाते है, वे भी आश्रवबंध के ही भेद होने से हेय तत्व ही है। " " इसप्रकार अपनी आत्मा की अन्तर्दशा को समझकर ध्रुवाशरूप स्व आत्म तत्व में अहंपना स्थापन करने की मुख्यता से उपरोक्त समस्त स्थिति को भेद ज्ञान एवं भली प्रकार अनुसंधानपूर्वक समझकर स्वको स्व के रूप में, पर को पर के रूप में मानते हुये, हेय को त्यागने योग्य, उपादेय को ग्रहण करने योग्य स्वीकार करते हुये, यथार्थ मार्ग शोध निकालने का उपाय " इस पुस्तक के इसी भाग में बताया गया है। उपरोक्त विषयों की विस्तृत जानकारी विषय सूची से जानकर पूर्ण मनोयोग पूर्वक अभ्यास करें। आगामी भाग 3 में प्रवचनसार गाथा 87 के माध्यम से मेरा आत्मा भी वर्तमान में अरहंत के समान ही है, ऐसा यथार्थ निर्णय करने की विधि की विस्तृत विवेचना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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