Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
समय में स्वस्थ गति और रीति से गंतव्य तक पहुँच जाता है। इसमें धरातल की अनुकूलता और प्रतिकूलता की भूमिका काम करती है।
इसी से मिलता-जुलता दूसरा दृश्य है। वही दौड़, वही गंतव्य और वे ही दोनों मार्ग, लेकिन व्यक्तियों की शक्ति तथा अशक्ति की भिन्नता। ऊबड़-खाबड़ मार्ग पर दौड़ने वाले के पांव सबल, गति सन्नद्ध और उत्साह अत्यंत है। किन्तु समतल मार्ग पर दौड़ने वाले व्यक्ति के पांव पहले वाले से आधे भी सबल नहीं,गति मध्यम और उत्साह सामान्य है। दोनों दौड शरू करते हैं अपने-अपने मार्गों पर, लेकिन होता क्या है? सबल पांवों वाला व्यक्ति लड़खड़ाता हुआ ही गंतव्य तक पहुँच पाता है, जबकि उससे बहुत पहले वह अशक्त व्यक्ति उसी गंतव्य पर खड़ा हुआ मिलता है। इसमें धरातल की दशा के अनुसार गति की स्थिति बनती है।
इन दोनों दृश्यों के विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि गति-प्रगति में व्यक्ति की अपनी भूमिका से भी अधिक महत्त्व होता है उसके पांवों के नीचे के धरातल की स्थिति का। इससे समझ में आता है कि सही धरातल की पहली आवश्यकता है। मनुष्य जीवन में यह धरातल होता है समाज की व्यवस्था (सिस्टम) का, जिसकी अनुकूलता या प्रतिकूलता व्यक्ति की गति पर तद्नुसार अपना प्रभाव डालती है।
यदि समाज व्यवस्था अनुकूल हो जाए, तब सबल व्यक्ति तो त्वरित गति से गंतव्य तक पहुँचेगा ही, परन्तु दुर्बल व्यक्ति भी मंद गति से ही सही, लेकिन प्रगति पथ पर आगे से आगे अवश्य ही बढ़ता रह सकेगा। वास्तव में सुचारु समाज व्यवस्था का लाभ उन बहुसंख्यक लोगों को मिलेगा, जिनके विकास पर ही सामाजिक विकास का स्वरूप ढलता है। जन-जन के चरित्र निर्माण तथा जीवन विकास के लिए दोहरे सम्बल की जरूरत पड़ती है। मूल सम्बल व्यक्ति के अपने बल का तो होता ही है, लेकिन व्यवस्था का बल भी साथ रहे तो दुर्बल व्यक्तियों के लिए भी मंजिल आसान हो सकती
___ आज जन-जन के चरित्र निर्माण और जीवन के स्वस्थ विकास के लिए समाज-व्यवस्था प्रतिकूल है। यह सब जानते और महसूस करते हैं। व्यवस्था शासन-प्रशासन की अर्थनीति और राजनीति की या व्यापार-वाणिज्य व्यवस्था की दिखती है कि सब ओर भ्रष्टाचार व्याप्त है। सदाचार का चलन होता है तो समाज व्यवस्था सुचारु और जन-जन के हितों के अनुकूल रहती है, किन्तु सब ओर भ्रष्टाचार फैले रहने पर वह निहित-स्वार्थी वर्गों के लिए ही फायदेमंद रह जाती है। ऐसी भ्रष्ट व्यवस्था के कुप्रभाव से संघ, धर्म, नीति, अध्यात्म के क्षेत्र भी बच नहीं पाते हैं, वहाँ भी धर्म के स्थान पर धन प्रधान हो जाता है और राजनीति अपने खेल खेलती है। आज की ऐसी प्रतिकूलता का असर है कि सामाजिक धरातल एकदम ऊबड़-खाबड़ और काँटों-भाटों से भरा है, जहाँ दुर्बल की कोई गति नहीं और हजार सबलों में भी विरला ही सबकुछ निछावर करके मंजिल की ओर बढ़ पाता है। ऐसे में यदि व्यवस्था का क्रम बदले, उसमें भ्रष्टता के स्थान पर शिष्ट सच्चाई फैले, सदाचार पनपे,
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