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ॐनमः सिद्धेभ्यः
सुबोधि-दर्पण
नित्य निरंजन निकल नित भणमों सिद्ध अनन्त ।। चर्मशरीराकार जो लोक शिखर तिष्ठन्त ॥१॥ वीतराग सर्वज्ञ जिन हित उपदेशक देव । तथा गुरु निग्रन्थ मुनि नमूं करूं पद सेव ॥ २॥ प्राप्तकथितआगम नमू स्यादाद ध्वनि सार । धर्म अहिंसा आदरूं भव भय नाशनहार ॥ ३ ॥ सम्यग्दर्शन, ज्ञान, व्रत धर क्षमादि दश धर्म । भाऊ वारह भावना सोलह कारण पर्म ॥ ४॥ काल दोष ते जगत जन भूल सुगुरु वृप देव । । विषय कपायन वश करत कुगुरु देव वृप सेव ॥ ५ ॥ तिन को स्थिति करण में कारण हो यह ग्रन्थ । लागें सन्मारग वि पा सुर शिव पन्थ ॥ ६॥ . "दीप" भावनाधार हियहि जिन मारग अनुसार । स्वल्प बुद्धि रचना करी बुध जन लेहु सम्हार ॥७॥
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