________________
श्रीसमंतभद्राचार्य कहते हैं, कि जो दोषों से रहित (वीतराग) सर्वज्ञ और आगम का ईश (हितोपदेशी) हो वही देव हो सकता है अन्यथा देवपना नहीं हो सकता । तात्पर्य यह है कि जो समस्त दोषों से रहित होगा, वही निर्भय होकर यथार्थ उपदेश कर सकेगा और उसी का प्रभाव पड़ सकेगा, क्यों कि जो स्वयं १.रागी २ द्वषी, ३ भूखा ४प्यासा, ५ रोग से पीड़ित, .६ जन्म ७.मरण करने वाला, बुढ़ापे से जर्जरित, शोक से संतप्त, १० भय से कंपित कायर, ११ विस्मय सहित अज्ञानी, १२ निद्रालु प्रमादो, १३ श्रमजल ( पसीना) से थका हुआ, १४ खेदित चित्त, १५ मदधारी-अहंकारी, १६अरति अनिष्ट बुद्धि रखने वाला, १७ चिंतातुर, १८ रति विपयानुगगी इत्यादि। दोपों सहित होगा (जो दोष सर्व साधारण संसारी प्राणियों में पाए जाते हैं ) वह बेचाग आप ही इन से दुखी होरहा है और अपने आप को इन से रहित नहीं कर सका है, सो दूसरों को कैसे उन दुखों ( दोपों) से छुड़ा सकेगा ? और उसका उपदेश भी कौन मानेगा ? उल्टी लोग उसकी हंसी उड़ायंगे, कहेंगे, कि यदि तेरे बताए मार्ग से हम सुखी हो सकते हैं, तो तु ने ही वह उपाय क्यों नहीं किया जिससे तू सुखी हो जाता और तब हम भी तेरे मार्ग का अनुशरण करके तेरे समान होने का उपाय करते, परन्तु जब तू स्वयं दुखी होरहा है सदोष है, तो तेरा चताया हुआ मार्ग कैसे निर्दोष व सुख कर हो सकता है, भाई तेरी तो ऐसी दशा है "आप खाय काकड़ी औरों को देवे आखड़ी" इसलिये पहिले तूही शुद्ध होले, तब हमको मार्ग बताना इत्यादि।
इसी प्रकार जो सर्वज्ञ अर्थात भलोक सहित तीनों लोक के । समस्त पदार्थों को उनकी भूतकाल (जो अनादिकाल बीत