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( ७० ) पुण्य बंध, जिसका फल देव, मनुष्य या तिर्यच गति में में किंचित् इन्द्रिय जन्य सुख प्राप्त होता है, कहलाता है।
[स्मरण रहे कि व्रत, तप, दानादि कार्यों में न तो शक्ति को छिपाना चाहिये और न कभी शक्ति से अधिक ही करना चाहिए, क्योंकि शक्ति छिपाने में प्रमाद, कायरता व माया रूप संक्लेश भाव होते हैं और शक्ति से अधिक करने में ख्याति, लोम, पूजादि प्रोतिरूप मान कषाय से संक्लेश भाव होते हैं. या भावी कान में प्रशक्ति आदि बढ़ जाने से धर्म साधन मार-- रूप मालुम होने लगता है और यम-नियम की रक्षार्थ संलश भावों से करना पड़ता है या अशक्ति व निर्धनतादि के कारणों से छोड़ देने का अवसर प्राजाता है, जिससे संल. शता बढ़ जाती है, अथवा मानादि कपायों वश संयम तप. श्वरण आदि पालना सो भी संक्लेश परिगामों से किया जाता है और इन संक्लेश भावों से ही पापासव व पापबंध, जिसका फल चतुर्गतिरूप दुख हैं, होता है ] अथवा मिथ्यात्वादि [पहिले बता चुके हैं.] सहित जो हिंसादि पापों व जुना आदि व्यसनों का सेवन करना, अभक्ष्य पदार्थ व मद्य, मांसादि खाना, रात्रि को खाना, बिना छना पानी पीना सच्चे देव, धर्म गुरु, की निन्दा वा अपवाद करना, पंचेन्द्रियों तथा मनके विषयों में स्वच्छन्द होकर प्रवर्तना, कोंधादि कषायों की स्वपर
आत्माओं में वृद्धि करना इत्यादि। ये सब संक्लेश भाव हैं, इससे पाप बन्ध ही होता है।
___ तात्पर्य-मिथ्यात्व के उदय में जो विषय कषायों की तीव्रतारूप भाव होते हैं वे सब पाप भाव हैं-दुःख के कारण हैं।