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और मिथ्यात्व के अभाव में जो विषय कपायों से अरु विरूप मन्द भाव होते हैं वे सब पुण्य भाव हैं ।
मिथ्यात्व सहित तीव्र कपायों व विषयाभिलाषाओं की वृद्धि रूप, भाव पाप और सम्यन्त्र सहित कषायों की मन्दता व विषयों में अरुचिरूप, भाव पुण्य है ।
पुण्य बन्ध में राग सहित संयम, सराग सम्यक्व श्रादिरूप विशुद्ध (शुभ) भाव कारण हैं और पाप बन्ध में मिध्यात्वसहित विषय कषायों की तीव्रतारूप परिणाम कारण हैं ।
इस लिए सुखाभिलाषी प्राणियों को सदैव अपने परिणामों का ध्यान रखना चाहिए, उन्हें कभी संक्लेश रूप नहीं होने देना चाहिए | यथासंभव विशुद्ध (शुभ) बनाते हुए शुद्ध ( पुण्य व पाप भावों से रहित अकषाय ) भावों की ओर लक्ष्य रखना चाहिए, क्योंकि यद्यपि पुण्य (विशुद्ध ) भावों से कथंचित् पुण्य बन्ध रूप इन्द्रिय विषय सुख होता है, परन्तु है तो बन्ध ही और फल भी उसका पराधीन सान्त सुख है और शुद्ध भावों से सम्पूर्ण कर्मों का नाश होकर, अक्षय अविनाशी स्वाधीन आत्मीक सुख मिलता है और वास्तव में उपादेय भी वही है, इसलिए शुभ भाव व क्रिया करते हुए भी लक्ष्य शुद्ध ही होना चाहिए ।
वास्तव में हमारे दान, शील, जप, तप, संयम, पूजा, तीर्थ यात्रा आदि सभी धार्मिक बाह्य क्रियायें, मिध्यात्व रहित अपने आत्मा से विषय कपाय घटाने या मिटाने के हेतु ही होना