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( 5. प्रारम्भ न करना, जिससे वीतराग विज्ञानता बढ़ती ही रहे और विषय कषायें घटें) पालन करना चाहिये जैनियों को अपने पर्व दिनों में शारीरिक शृङ्गार न करना चाहिये और न ऐसे वस्त्राभूषण ही पहिरना चाहिए, जो स्वपर को राग व मोह का कारण हो, मात्र शरीर की शुद्धि ( पूजा स्वाध्याय धर्म साधनार्थ स्नान ) करके सादे मोटे खादी के स्वच्छ वख शरीर की लज्जा रखने व रक्षार्थ पहिरना चाहिए, क्योंकि सभी जैन पर्व विपय कषायों के घटाने के लिए किए (माने ) जाते हैं, उन दिनों में शृङ्गारादि-शरीर संस्कार करना व्रतों में दोष लगाना है, उल्टे राग भाव बढ़ाने वाला है। पर्व दिवसों में विशेष शृङ्गार करने या पौष्टिक खान पान की प्रथा जैनियों को सादगी में बदल देना चाहिए।
इस प्रकार सम्यगरत्नत्रय और मिथ्या रत्नत्रय का संक्षेप वर्णन किया, अब संसार अवस्था में जीवों को पुण्य । पाप ही सुख दुख का कारण होते हैं, उनका संक्षेप स्वरूप भी जानना जरूरी है:
कुगुरु कुदेव तथा कुशास्त्र व कुधर्म (अपर इनका स्वरूप बता चुके हैं । और अतत्वश्रद्धान [ जैसे जीव को शरीरादि रूप मानना, राग द्वप मोहादि आश्रव-बन्धके कारणों को सुखके कारण समझना, ज्ञान, वैराग्य, सम्यग्दर्शन व चारित्रादि संवर और निर्जरा के कारणों को कष्टदायक मानना, मोक्ष से जीवों का पुनः संसार में आना मानना, किसी एक ईश्वर को सृष्टि का कर्ता हर्ता व रक्षक मानना ) को छोड़ कर, जिनेन्द्रभाषित जीव [देखने जानने वाला, सुख का व दुख का वेदन करने वाला