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है और सच्चा स्वाधीन अतन्द्रिय अविनाशी सुख प्राप्त करसकता ।. अतएव इनकी पूजा करना अनिष्ट व दुखदाई है, अनर्थ है ।
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कितने भोले प्राणी, मिट्टी, पृथ्वी, पीपल, वड़, आदि वृक्षों को तथा गंगा, गोदावरी, जमुना, नर्वदा, ताप्ती, बानगंगा, ब्रह्मपुत्र, सिन्धु आदि नदियों समुद्रों को वा हिमालय, विन्ध्याचल, सतपुड़ा आदि पहाड़ों को भी पूजते हैं, कोई अग्नि के पूजते हैं, तुलसी को पूजते हैं इत्यादि । सो ये यदि सजीव हैं तो - एकेन्द्रिये हुए जो बेचारे स्वयं आंधी, पानी, अग्नि आदि से या मनुष्य पशु आदि से अपनी ही रक्षा नहीं करते, उनको खोदा जाता है, काटा जाता है, खाया जाता हैं, जलाया जाता है, बुझाया जाता है, पकाया जाता है, फोड़ा जाता है, पटका जाताहै इत्यादि । दुख रूप अवस्था जिन एकेन्द्रो पृथ्वी, पर्वतादि, अग्नि आदि व बनस्पति पवनादि जीवों की होती है; उनके पूजने से पूजकों को कैसे सुख हो सकता है । हां! ऐसी मृढ़ता से ज्ञान हीन होकर उन्हीं के जैसे जन्मान्तर होने का अवसर आ सकता है ।
इसके सिवाय कितने, गोबर, कुम्हार का चाक, अवा, मिट्टी के घड़े, दीपक, देहली; मापने का गज, सेर, पायली, तराजू - कांटा, रुपया, मुहर, चक्की, चूल्हा, ऊखल - मूसल, लकड़ी खम्म, मांडवा (मण्डप ) वेदी, कूँश्रा, खानि ( खदान ) अनाज दूध, दही, दवाव क़लम, पोथी आदि जड़ वस्तुओं को पूजते हैं और मनाते हैं; इनके पंजने मनाने से हमारे ऋद्धि सिद्धि हो जावेगी, सो ये भी देव मूढ़ता है, ये जड़ वस्तुएँ हैं, इनमें न ज्ञान दर्शन. (चेतना) है और न सुख दुःख का वेदन व देने लेने को