Book Title: Subodhi Darpan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 47
________________ ( ४६ ); से तथा अपने समान अन्य मोक्ष महात्माओं से सहायता प्राप्त भी की और ऐसा अभ्यास करते २ ज्यों २ उनके आत्माओं से रागादि भाव घटते गए, त्यों २ उनके अन्तरङ्ग में एक प्रकार का दिव्य तेज व सुख शांति का भाव प्रगट होता गया और ऐसा होते हुए जब सम्पूर्ण रागादि भाव आत्मा से निकल गए, तो वह दिव्य तेज अपने पूर्ण रूप से प्रकाशित होगया, पूणे सुख शांति प्राप्त होगई। अर्थात् वे महात्मा सशरीरमुक्त (जीवन्मुक्त) सर्वज्ञ. वीतराग प्राप्त परमात्मा होगए, पश्चात् शरीर की स्थिति तक उन्होंने अपने दिव्य [ केवल ] ज्ञान के द्वारा संसारी जीवों को सन्मार्ग [ मोक्ष मार्ग] का उपदेश दिया और बता दिया कि ए संसारी भव्यात्माओं मैं जिस अवस्था को प्राप्त हुआ हूँ व. जिस मार्ग से हुआ हूँ, वह यह मार्ग है । माओ ! इस मार्ग में चलो तुम ही मेरे जैसे पद को प्राप्त होकर सर्व दुःखों से छूट जाओगे, मैं भी तुम्हारे समान-संसारी था, सो इसी मार्ग से इस पद पर आया हूँ, तुम भी आ सकते हो, तुम में भी मेरे समान शक्ति है, उसे देखो, जानो और साहस करके बढ़े चले आश्रो इत्यादि । इस प्रकार अनेकों भव्य प्राणियों को कल्याण मार्ग में लगाकर श्रायु पूर्ण होते ही शरीर से. भी मुक्त होकर केवल आप स्वरूपी अशरीरी [सिद्ध ] परमात्मा होगए । इस प्रकार का विचार आते ही हमको भी संसार से वैराग्य होने लगता है और ज्यों २ हम उस प्रति मूर्ति को एकाग्रचित्त होकर देखते हैं, त्यों २ वैराग्य बढ़ने लगता है, संसार, शरीर व भोगों में अशक्ति कम होने लगती है, सच्चे साधू मोक्षमार्गी' जीवों के साथ प्रेम, भाव.बढ़ने लगता है।। . ., .:

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