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अपने आराध्यदेव का स्मरण गुण चिंतवन, कीर्तन, मनन, स्तवन, भक्ति होने लगता है, ये वैराग्य मय दिगम्बर जैन मूर्तियों यद्यपि निर्जीव पत्थर धातु या काष्ठ की बनी हुई होती हैं और जड़ हैं, तो भी संसारी प्राणियों को शांति के निमित्त होती हैं, इनके सन्मुख जाकर नमस्कार बंदन पूजन करना या अभिषेक. ( प्रक्षालन ) करना, वास्तव में मूर्ति का स्तवन वंदन पूजन, अभिषेक नहीं है, किन्तु उन्हीं आराध्य परमात्म पद प्राप्त परमात्माओं का ही स्तवन पूजन बंदनादि है, इस क्षेत्र काल में वे. सशरीर अहंत परमेष्टो तीर्थंकर प्रभु हमारे सम्मुख नहीं है,. इस लिए हम अपने आत्म हित के लिए अर्थात् अपने आत्मा से मोह ( मिथ्यात्व ) तथा रागद्वे पादि भाव घटाने के लिये उनकी प्रति मूर्ति बनाकर रखते हैं और संसारी झंझटों से अवकाश लेकर कुछ समय इन वैराग्यमयी मूर्तियों के सन्मुख जाकर पूज्याराध्य देवों का गुण स्मरण करके उनकी ही भक्ति में मग्न हो जाते हैं, पश्चात् उनके साथ अपने स्वरूप का मिलान करते हैं, तो दोनों का द्रव्य समान होते हुए भी दोनों की अवस्था में अन्तर पाते हैं, उन की अवस्था ( पर्याय) तथा गुण सर्वथा शुद्ध पाते हैं और अपनी पर्याय व गुण मलिन पाते तत्र विचारते हैं, कि जब हमोरा इनका द्रव्य समान है, शक्ति सदृश है, ये भी कभी हमारे जैसे संसारी, प्राणी, थे, जो कि अब 'शुद्ध परमात्म स्वरूप : हमारे आराध्य होरहे हैं, ऐसा विचार करते हुए उनके वर्तमान परमात्म; पद प्राप्त होने से पूर्व की अशुद्धावस्था का चरित्र और वे उस अवस्था में रहते हुए कैसे उससे निकल कर इस अवस्था · को प्राप्त हुए हैं, विचार जाते हैं. ।
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