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निधि की राय ही उसकी राय मानी जाती है, परन्तु जहाँ जो स्वयं उपस्थित होता है, वहां उसके प्रतिनिधि की आवश्यकता ही क्या है ? कुछ नहीं। सो इस क्षेत्र काल में जैनियों को भारी ध्य देव परम वीतराग सर्वज्ञ आप्त परमेष्टी मौजूद नहीं है, अन्य क्षेत्रों मेंहै, इसलिये हमवदाकार मूर्ति में उस आराध्यदेवकी स्थापना करके उसके द्वारा(निमित्त से)अपना आत्महित चितवन करते हैं, परन्तु जैनेतर समाजों ने प्रथम तो ईश्वर को सर्वव्यापक ( हर जगह हाजिर नाजिर) माना है । अतएव जब कि वह सब जगह सदा मौजूद ही रहता है, तो फिर उसकी मूर्ति में कल्पना करके
और अमुक क्षेत्र मात्र व्यापी बना देना अर्थात् व्यापी से व्याप्य कर देना और अरूपी अमूर्ती मानते हुए मूर्ति बना देना, उस ईश्वर का अपमान करना ही हुआ। दूसरी बात यह है, कि जितनी भी वीतराग देव की दिग० जैन मूर्ति के सिवाय मूर्तियां संसार में देखी जाती हैं, उन में प्रायः किसी में क्रोध, किसी में मान, किसी में माया, किसी में लोभ, किसी में काम, किसी में भय, किसी में द्वष, किसी में राग इत्यादि । वातें जो कि संसारी सभी प्राणियों में पाई जाती हैं,मिलती हैं । सम्भव है कि संसारी प्राणियों से उन में वे बातें किसी अंश में अधिक होंगी, सो हों, इससे क्या वे आदर्श होगए ? और क्या ये बाते गुण हैं ? यदि ये गुण रूप हैं, तो इनके करने वालों को राजा व पञ्चों से दण्ड क्यों मिलता है ? क्योंकि जब उनका आराध्य पूज्य श्रादर्श ही गैसा है तो पूजक वैसा होना ही चाहिए और यदि पूजक ते . पूज्य का किसी भी अंश में अनुकरण नहीं किया, तो वह वास्तव में पूजक अाराधक ही नहीं है, किन्तु स्वपरवञ्चक है.! इसलिए यदि ये बातें गुण रूप अनुकरणीय है, तो इनके करने