Book Title: Subodhi Darpan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 54
________________ एक वार श्रागरे में कोई मुनि (दिग० भेषधारी साधु) आए, सभी उनकी पन्दना को गए वे बाग में ठहरे थे, सो स्व० पण्डित बनारसीदासजी कविवर भी गए और ओट में बैठकर उनकी गली दिखाने लगे, दो चार बार ऐसा होने पर उनको क्रोध श्राया देख उक्त कविवरजी उनको नमस्कार किए बिना ही घर चले गए, वे समझ गए कि अभी साधुपना इन में नहीं है, मात्र भेप ही भेप है, ऐसे ही किसी अन्य समय एक अन्यमती साधु प्राया, जनता में उसकी प्रशंसा होती देख उक्त कविवर भी गए और चुपके पीछे बैठ गए, जब लोग चले गए तो नम्रता से पूछा, श्रीमान का नाम ? साधु चोला, शीतलप्रसाद, तय पण्डितजी उठ के चलने लगे और चार कदम चलने के बाद पुनः लौटकर पूछा, श्रीमान मैं भूल गयो,आपका शुभ नाम ? पुनः कुछ तेज स्वर में उत्तर मिला "शीतलप्रसाद" इसी प्रकार २-३ बार लौट २ कर पण्डित ने पूछा, तो साधु झुमला कर जोर से बोला 'शीतलप्रसाद' बस ! पण्डितजी समझ गए और बोले बाबा अब नहीं भूलूगाश्रापका नाम ज्वालाप्रसाद है, पस! साधु भी जान गया, कि ये तो कविवर बनारसीदास थे, सो अपना डएडा झोला सम्हाल कर चलता बना । सारांश यह है, कि काम फ्रोधादि दुर्गुण हैं और जिन में ये हैं वे दुर्गणी हैं, इसलिए जिन में ये पाये जॉय, जिनकी मूर्तियों में ये बातें हों, वे देव व उनकी मूर्तियां कभी पूज्य नहीं हो सकी। कुदेव का लक्षण पण्डित प्रवर दौलतरामजी ने ऐसा ही कहा है"जे रागद्वेष मलकर मलीन । पनिता गदादि युत चिन्ह चीन ।

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