Book Title: Subodhi Darpan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 53
________________ (५२) रहता है । काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह, ममता सन से दूर रहती है। इसके विपरीत जिन में ये बातें जितने अंशों में हों, वे उतने ही अंशों में निद्य माने जाते हैं। फिर भले ही कोई स्वार्थी अज्ञानी अपने किसी प्रयोजन के वश में उन्हें पूजे माने और उनको अपने हाथ का शस्त्र बना करके अपना स्वार्थ सिद्ध करे, परन्तु अन्तरङ्ग से तो वह भी उन्हें, वे जैसे हैं, वैसे ही मानता है और स्वार्थ सिद्ध होने पर उन्हें छोड़ भी देता है, जैसे हाल ही की बात है, अमुक जगह बहुत वर्षों से शास्त्र भण्डार बन्द था, एक उपदेशक ने उसको खुलवाने का बीड़ा उठाया, अनेक प्रयत्नों के पश्चात् उनको चाणक्य के समान एक एल्लिकजी मिलगए, वे क्रोध करने और मनमाने अपशब्द बोलने में प्रसिद्ध थे और उस समय समाज में वे अकेले. होने से प्रतिष्ठा को भी प्राप्त थे, उपदेशक उनकी सेवा सुश्रूषा करके वहां लेगए, यद्यपि ये उनको एल्लिक नहीं मानते थे, इनकी उन में 'श्रद्धा-भक्ति नहीं थी, तो भी प्रयोजन के वश ऐसा किया और जब शांख भण्डार खुलगया, उसकी सन्हाल होने का सुअवसर आगया, तो उनको अन्य क्षेत्र में जाकर छोड़ आए अर्थात् पृथक होगए, यह मानना भक्ति नहीं, स्वार्थ सिद्धि है। भले वह शुभ भावना से थी, ऐसी ही कोई अशुभ भावना से करते हैं, कोई धन कमाने को, कोई पूजा प्रतिष्ठा पाने को, कोई माल उड़ाने को, चन्दा कराने को, जैसे हाल में मृत मुनीन्द्र सागर जैसे नग्न भेषी जनों के साथ कतिपय नामधारी पण्डित लगे , रहते और अपना स्वार्थ सिद्ध करते.थे, परन्तु यह भक्ति नहीं कहांती, ये तो ठगपना है, तात्पर्य-ये कामादि कषायें दोष ही हैं, गुण नहीं हैं । देखो.-"

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