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___ उससे हमको तुरन्त पता लगजाता है, कि उन्होंने अशुद्धावस्था (हमारे समान ) में ही उनसे पूर्व में हुए परमात्माओं के दर्शन या उनके चरित्रों को सुन कर उनके उपदेशों ( तत्व स्वरूप ) का मनन किया और परीक्षा पूर्वक उसे सत्य पाया, तप उन [जीव, अजीव, पाश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ] तत्त्वों में से पापने श्रात्म तत्त्व को अन्य तत्वों से प्रथक 'निश्चय किया, अर्थात् स्वात्म दर्शन [ सम्यग्दर्शन ] प्राप्त किया, पश्चात् अपने प्रात्मा के मलिन होकर बन्ध में पड़ने के कारणों पर खूब विचार करके उनको जान लिया, ऐसा ज्ञान होते हुए स्वयमेव यह मान होने लगा कि जो कारण आत्मा के मलिन होने अर्थात् कर्मास्रव में व बन्ध के हैं, ठीक उनसे विपरीत
आत्मा को कर्मास्त्रव से बचाने या रक्षा करने (संवर) तथा 'पूर्व में बांधे हुए कर्म बन्धनों को काटने [ निर्जरा ] होने में कारण होते हैं।
अर्थात् जिन राग द्वेप, माहादि भावों के निमित्त से कर्म भास्रव होता या बँधता है, उन्हीं रागद्वप, मोहादि भावों के .अभाव से कमों को संवर तथा निर्जरा भी होती है, इस प्रकार सम्यग्ज्ञान होने पर, फिर उन्होंने अपने पूर्व मोक्ष प्राप्त परमात्माओं के पूर्व चरित्र के अनुसार वाह्य चारित्र ग्रहण कर' रागद्वषे व मोह के कारण समस्त वाह्य परिग्रहों (पदार्थों ) का मन बचन काय, व कृत कारित अनुमोदना से सर्वथा त्याग करके अपने अन्तरङ्ग मावों पर दृष्टि डाली और जो . जो, पर पदार्थों के निमित्त से उत्पन्न हुए विभाव भाव पाते : गये, उन उनको हटाते गए, इसके लिए मोक्षमार्गोपदेशक श्रागमःअन्थों.