Book Title: Subodhi Darpan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 41
________________ (४९. ) व्यंतर (किन्नर कि पुरुष, महोग्ग, यत, राक्षस, भून, पिशाच, व्यंतर) और भवन (पाताल ) वासी (असुरकुमार आदि १० प्रकार ) बताये हैं। इसका अर्थ यह नहीं है, कि उनको पूजना चाहिये, किन्तु जैसे संम्परी जीवों में एक गति मनुष्य. है ऐसे ही एक गति देवों की है, एक तिर्यचों की और एक नारकियों की भी है । सब की योनियां व कुज भी पृथक् हैं, इनमें नरक गति के जीवों को निरंतर दुःख ही दुःख उदय में रहता है। देवों में कितनों को अधिक और कितनों को कम सुख उदय में रहता है, शेष मनुष्यों व पशु षों को यथा योग्य सुख किंवा दुःख उदय में रहता है, यहीं सुख दुख से प्रयोजन इन्द्रिय अन्य अपराधीन कर्मो दय से प्राप्त नाशवान सुख दुःख से है, परमार्थ तो चारों गति के जीव दुखी ही हैं, सभी को जन्म मरण, इष्टवियोग, अनिष्ट संयोग, सुधा तृषादि रोग लगरहे हैं, वास्तव में सच्चे सुखी तो अहंत तथा सिद्ध ही हैं) इस लिए ये कोई पूज्य नहीं हो.सकते; पूज्यता अहंत, सिद्ध परमेष्ठी ही हो सकते हैं, जो सर्व दोषों व दुखों से मुक्त हैं। बहुत से नर नारी, गाय, हाथी, घोड़ा, नाग आदि पशुश्रो को पूजते हैं; सो पूजा तो उसकी की जाती है, जिसके समान हम होना चाहते हैं,,मानों कोई धनवाले की सेवा करता है, तो उसका प्रयोजन धन प्राप्त करना है ।' इत्यादि इसी प्रकार जो हाथी, घोड़ा, गाय, सर्प आदि पशुओं व गरुड़ आदि को पूजते हैं, वे स्वयं हाथी, घोड़ा आदि पशु होना चाहते हैं.. परन्तुः मनुष्य जन्म तो चारों गतियों में श्रेष्ठ है, क्योंकि जप, तप, संयमः शील, ब्रतादि.मनुष्य ही धारण करके कर्मों का नाश कर सकता।

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