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जोगी जांगड़ों वा मंत्रादि करने वाले, धन व संतान देने वालों पर विश्वास मत करो, ये भी मरते हैं औरों को क्या बचायेंगे ?' ये माँगते फिरते हैं, औरों को क्या देंगे ? ये रोगी रहते हैं, ओ को क्या निरोग करेंगे ? ये अपना ही भविष्य नहीं जानते औरों को क्या बतायेंगे ?
इसके सिवाय, गुरु इन बातों के लिए होता ही नहीं, वह तो केवल संसार के मोहांधकार में पड़े हुए प्राणियों को स्वयं 'आदर्श बनकर अर्थात मोह से निकल कर और को भी निका लने का सत्योपदेश देता है उनको आत्मश्रद्ध कराता है, ज्ञान-ध्यान तप-त्रत संयम के मार्ग में लगाता है, परंतु बदले में कुछ भी नहीं चाहता, जिसके निरंतर मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भावनाएँ उदित रहती हैं, वही गुरू है साधु है, वह न चमत्कार करता है, न उसमें फंसता है, न फंसाता है, न अनुमोदनाही करता है, उसके सन्मुख, तीनलोक का राज्य भी तृणवत तुच्छ है, है है ।
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इसलिये. यंत्र मंत्र, दवा, धन, पुत्रादि की आशा से या लौकिक, चमत्कार आदि के कारण कभी भी किसी को साधु न 'मानना चाहिए, किन्तु इन धूर्तों से बचते रहना चाहिए।
इस प्रकार सुगुरु; कुगुरु का स्वरूप बताकर कुगुरु से बचने का उपदेश किया; अब कुदेव और सुदेव का स्वरूप बताते हैं ।
श्राप्तेनेोच्छिन्न दोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना ।
भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ॥ (र.क. श्रा.)