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से पुस्तक कमण्डलु उपकरण उठाने या रखने से किसी भी त्रसोदि प्राणी को बाधा न पहुंचे, उनकी हिंसा न हो जाय, इसलिये उन की रक्षार्थ अर्थात् उत्तम संयम पालने का वाह्य साधन पीछी तथा निरन्तर आत्मज्ञान की रक्षा तथा वृद्धि के हेतु शास्त्र आदि उपकरणों के सिवाय अन्य कोई भी परिग्रह, कि जिससे रागादि संकेश भावों का निमित्त बने नहीं रखते। . . .
जो पांच महाव्रतों को (अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य तथा परिग्रह त्याग) तथा पांच समितियों को [ ईर्या अर्थात चलते समय ४ हाथ भूमि आगे आगे जीव जन्तु रहित देखकर चलना, भापा अर्थात हितकारी, मित (आवश्यकतानुसार यथा सम्भव कम) और मधुर वचन बोलना, एषणा अर्थात् कृत कारित अनुमोदना से अपने लिए नहीं तैयार किया गया-ऐसा. अनुद्दिष्ट ४६ उद्गमादि दोपों से रहित ३२ अन्तरायों को टाल कर शुद्ध प्रासुक भोजन केवल ध्यान स्वाध्याय तप संयमादि की रक्षा के लिये, न कि शरीर पोपण या स्वाद के लिए' ऊनोदर रसादि को छोड़ कर गृहस्थों के द्वारा आदर पूर्वक [नवधा' भक्ति से] दिया हुधा लेना, आदान निक्षेप अर्थात् शास्त्र पीछी कमण्डलु शरीरादि शोध कर रखना, उठाना, उठना बैठना,शयन करना और तुत्सर्ग अर्थात् मल मूत्र श्लेष्मादि जीव जन्तु रहित प्रासुक भूमि में त्याग करना] पालन करते हैं, यथा सम्भव तो मन बचन और काय इन तीनों योगों को संवरंण करके 'गप्ति कर देते हैं अर्थात् इनकी क्रियाओं को रोक देते हैं और परम संवर स्वरूप हो जाते हैं, परन्तु यदि ऐसा किसी समय न कर सके अर्थात् गुप्ति रूप न रह सके, तो अपर बताई हुई समिति स्वरूप प्रवर्तन करते हैं अर्थात समिति के समय गुप्ति और गुप्ति