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कार दृष्टि से प्रथम गुरू का, पश्चात् शाख व धर्म का स्वरूप क्रम से बतायेंगे, क्यों कि हमको देव शास्त्र व धर्म का सच्चा स्वरूप सच्च े गुरू ही के द्वारा हो सकता है, अन्यथा नहीं, एक कवि ने कहा है
"गुरु गोविन्द दोनों खड़े, किसके लागूं पाँय । बलिहारी या गुरू की, गोविंद दिए बताय ||"
इसलिए हमको सबसे पहिले गुरू की पहिचान करके ही गुरू बनाना चाहिये और पश्चात् उनके बताये हुए मार्ग पर वि श्वास करके चलना चाहिये, ताकि हम निर्भय होकर सन्मार्ग में चलते हुए अपने लक्ष्य विन्दु ( सच्चा अविनाशी स्वाधीन सुख ) तक पहुंच सके, जो सद्गुरु मिल जायगे, तो हमारा बेड़ा पार हो जायगा, अन्यथा असद्गुरुओं के चक्कर में पड़ कर वह संसार समुद्र में ही डूब जायगा, इसी लिये कहा है." गुरू कीजिये जान, जो चहो श्रातमकल्यान" इत्यादि । इसलिए यहाँ पर प्रातस्मरणीय पूज्यपाद स्वामी समन्तभद्राचार्य के शब्दों में ही गुरु का लक्षण बताते हैं । यथा
"विपाशावशातीते। निरारम्भोऽपरिग्रहः ।
ज्ञान-ध्यान- तपो-रक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥” ( रत्नकरण्ड श्रावका० )
अर्थात् -- जो विषयों (स्पर्शन, रसना, घाण, चक्षु तथा कान इन पाँचों इन्द्रियों के मनोज्ञ या अमनोज्ञ, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ग:तथा शब्दादि ) को आशा से रहित अर्थात् इन से. विरक्त हों। जो असि; मसि, कृषि, शिल्प, वाणिज्य तथा
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