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देहात्मवाद : ११
देखें तो वहाँ भी यह मान्यता है कि मन की जितनी अवस्थायें हैं उन सब के साथसाथ किसी न किसी प्रकार की शारीरिक क्रिया अवश्य होती है। चाहे उनसे हमारे शरीर के अंगों में इच्छित परिवर्तन न हो तो भी प्राण की गति, रक्त-संचालन, सामान्य संचालन, सामान्य पुट्ठों के संकोचन प्रसारण, ग्रन्थियों इत्यादि के कार्यों में कुछ न कुछ तब्दीली अवश्य होती है। जितने भी मानसिक व्यापार हैं उनका कारण मस्तिष्क की अवस्थाएं ही हैं। क्योंकि ऐसा देखा जाता है कि जब मस्तिष्क में परिवर्तन होता है तो मन में भी परिवर्तन हो जाता है। जैसे नशे की वस्तु खा लेने पर या अधिक ज्वर हो जाने पर। पागलपन की अवस्था में भी मानसिक परिवर्तन देखा जाता है। चूँकि मस्तिष्क शरीर का ही एक अंग है अत: यह मानना पड़ता है कि चेतनता शरीर का ही गुण है । अत: आत्मा शरीर से अलग नहीं है।
न्याय दर्शन जो देह और आत्मा को अलग-अलग मानता है, का कहना है कि जिस चीज को हम आँख से देखते हैं उसी को हाथ से छूते है। जैसे आँख ने कलम को देखा, फिर हाथ ने छूकर मालूम किया तब हमको यह ज्ञान हुआ कि आँख से देखी हुई वस्तु और हाथ से छुई हुई वस्तु दोनों एक ही है।' आँख से प्राप्त कलम का ज्ञान और हाथ से प्राप्त कलम के ज्ञान में जो साधन रूप हैं, उन्हें जो काम में ला रही है, वह आँख और हाथ से अवश्य भिन्न है और वही आत्मा है । यहाँ कोई कह सकता है कि विषयों की व्यवस्था ही ऐसी है कि आँख रूप को देखे और हाथ कठोरता को छू । यदि इन इन्द्रियों से अलग आत्मा नाम की कोई चीज होती तो विषयों की अलग-अलग व्यवस्था करने की क्या आवश्यकता थी। फिर तो हम आँख से खट्टापन चखते और जीभ से देखते । न्याय दर्शन कहता है कि अलग-अलग इन्द्रियाँ अलग-अलग विषयों को ग्रहण करती हैं, यही व्यवस्था तो आत्मा की सत्ता को प्रमाणित करती है । ऐसा भ्रम इसलिए होता है कि हम नींबू में मात्र दो ही व्यापार को स्वीकार करते हैं - पीलेपन को देखने का और खट्टेपन को चखने का। जबकि उसमें तीन व्यापार होते हैं। एक पीलेपन को देखने का, दूसरा खट्टेपन को चखने का और तीसरा जिसे हम अनदेखा कर देते हैं वह है जो यह कहता है कि जिसमें हमने आँख से पीलापन देखा उसी में खट्टापन भी चखा। यही कहनेवाला आत्मा है। यह भावना न तो आँख की है और न ही जीभ की ।
'एक आत्मनः शरीरे भावात्', पर भाष्य करते हुए आचार्य शंकर ने कहा है कि चूँकि देह के साथ ही ज्ञान आदि व्यापार देखे जाते हैं इसलिए लोग ऐसा मान लेते हैं कि यह देह का ही धर्म है। यदि ऐसा है तो फिर देह होते हुए भी ज्ञान का अभाव क्यों देखा जाता है? क्यों नहीं माना जाता कि ज्ञान शरीर का धर्म नहीं है ।" मरने
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