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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान / १०
अजर अमर अविकल अविकारी अविनाशी अनन्त गुणधाम । नित्य निरंजन भवदुःख भंजन ज्ञानस्वभावी सिद्ध प्रणाम | ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिने अष्टकर्मविनाशनाय धूपं नि. । निज चैतन्य स्वरूप न जाना कैसे निज में आऊँगा । भेदज्ञान फल दो हे स्वामी ! स्वयं मोक्षफल पाऊँगा ॥ अजर अमर अविकल अविकारी अविनाशी अनन्त गुणधाम । नित्य निरंजन भवदुःख भंजन ज्ञान. स्वभावी सिद्ध प्रणाम || ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिने मोक्षफल प्राप्तये फलं नि. ।
अष्ट द्रव्य का अर्घ्य चढ़ाऊँ अष्टकर्म का हो संहार । निज अनर्घ्यपद पाऊँ भगवन सादि अनन्त परम सुखकार ॥ अजर अमर अविकल अविकारी अविनाशी अनन्त गुणधाम । नित्य निरंजन भवदुःख भंजन ज्ञानस्वभावी सिद्ध प्रणाम ॥ ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि. ।
जयमाला
(वीरछन्द)
मुक्तिकन्त भगवन्त सिद्ध को मन-वच - काय सहित सु प्रणाम । अर्ध चन्द्रसम सिद्धशिला पर आप विराजे आठों याम ॥ ज्ञानावरण दर्शनावरणी मोहनीय अन्तराय मिटा | चार घातिया नष्ट हुए तो फिर अरहंत रूप प्रकटा ॥ वेदनीय अरु आयु नाम अरु गोत्र कर्म का नाश किया।
उ अघातिया नाश किये तो स्वयं स्वरूप प्रकाश लिया ॥ अष्टकर्म पर विजय प्राप्त कर अष्ट स्वगुण तुमने पाये । जन्म-मृत्यु का नाश किया निज सिद्ध स्वरूप स्वगुण भाये ॥
निज स्वभाव में लीन विमल चैतन्य स्वरूप अरूपी हो । पूर्ण ज्ञान हो पूर्ण सुखी हो पूर्ण बली चिद्रपी हो ।।