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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/६८
नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल। १
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥६४॥ ॐ ह्रीं पीतवर्णनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
अगुरुलघु नामकर्म की प्रकृति विनायूँ हे भगवान । भारी अथवा हलका नहीं कभी भी होऊँ रहूँ समान । नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥६५॥ ॐ ह्रीं अगुरुलघुनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
घातक अंगोपांग न पाऊँ मैं उपघात प्रकृति नायूँ । कर्मोदय में जागृत रहकर आत्मतत्त्व निज परकायूँ ॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल। ..
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥६६॥ ॐ ह्रीं उपघातनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
पर की घातक अंगोपांग प्रकृति परघात विनाश करूँ। कर्मोदय में जागृत रहकर आत्मतत्त्व में वास करूँ ॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥६७॥ ॐ ह्रीं परघातनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
आतप प्रकृति उदय से ही होती है शरीर में आतप प्राप्ति। इसका नाश करूँ मैं स्वामी परम शान्ति की हो उर व्याप्ति॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल। .
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥६८॥ ॐ ह्रीं आतपनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
तन उद्योत प्रभा दाता है यह उद्योत नाम का कर्म । है. इसे विनायूँ आत्मध्यान से हो जाऊँगा मैं निष्कर्म ॥