Book Title: Siddha Parmeshthi Vidhan
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Kundkund Pravachan Prasaran Samsthan

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Page 81
________________ श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान / ७८ साम्यभावी स्वफल पाने करूँ शुद्धात्म का चिन्तन । मोक्षफल नाथ पाऊँ मैं हरूँ संसार के बंधन ॥ गोत्र दोनों प्रकृति नानूँ अगुरुलघु गुण सदा ध्याऊँ । परावर्तन पंच क्षय हित सिद्ध प्रभु को सदा ध्याऊँ ॥ गोत्रकर्मविरहित श्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं नि. अर्घ्य उत्तम सजाऊँ मैं ज्ञान के गीत गाऊँ मैं । स्वपद पाऊँ अनर्घ्य अपना लौट भव में न आऊँ मैं ।। गोत्र दोनों प्रकृति नाशँ अगुरुलघु गुण सदा ध्याऊँ । परावर्तन पंच क्षय हित सिद्ध प्रभु को सदा ध्याऊँ ॥ ॐ ह्रीं गोत्रकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि. । ॐ अर्ध्यावलि (दोहा) गोत्र कर्म की प्रकृतियाँ, ऊँच-नीच दो भेद । शुद्ध आत्मा तो सदा, गोत्र विहीन अभेद ॥ (वीरछन्द) गोत्रकर्म की उच्च प्रकृति से होती है सुर नर पर्याय । दोनों ही पर्याय दुखमयी शिवसुख बाधक बहु दुखदाय ॥ गोत्रकर्म सम्पूर्ण नाश कर दोनों प्रकृति विनाशँगा । अगुरुलघुत्व स्वगुण पाऊँगा निज शुद्धात्म प्रकाशृंगा ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं उच्चगोत्रकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि. । कर्म की नीच प्रकृति तिर्यञ्च नरक दुख की दाता । इसे नष्ट करना है मुझको यह पंचमगति की घाता ।। गोत्रकर्म सम्पूर्ण नाश कर दोनों प्रकृति विनाभूँगा । अगुरुलघुत्व स्वगुण पाऊँगा निज शुद्धात्म प्रकाशँगा ॥२॥ ॐ ह्रीं नीचगोत्रकर्मविरहित श्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि. ।

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