Book Title: Siddha Parmeshthi Vidhan
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Kundkund Pravachan Prasaran Samsthan

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Page 93
________________ श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/९० इच्छाएँ अनन्त होती हैं इच्छारहित सुमुनि अनगार। सागारों को धर्ममार्ग पर लाकर हो जाते भव-पार ।। गो गज अश्व रत्न राज्य भू धन सब जानो दुख के स्रोत। एकमात्र सन्तोष महाधन परम शान्ति से ओत-प्रोत ॥ इच्छाओं पर करो नियंत्रण रागादिक से लो मुख मोड़। पावन समकित उर में लाओ निज सुखसर से नाता जोड़॥ भव तन भोगेच्छा जय करने वाले पाते पद निर्वाण । नहीं समस्या होती फिर कुछ होते कर्म न फिर बलवान॥ नित्यानन्दमयी मंगलता कठिनाई से प्राप्त हुई। भाव-नग्नता जागी उर में द्रव्य-नग्नता व्याप्त हुई। दर्शविशुद्धि भावना भाना करना अपना दृढ़ श्रद्धान । सतत विनय सम्पन्न भाव हो तब ही होगा सम्यग्ज्ञान॥ निरतिचार हो शुद्ध शीलव्रत तुम कषायवश मत होना। निज ज्ञानोपयोग में रहना ज्ञानाभ्यास लीन होना। भव तन से वैराग्य भाव हो उर संवेग भाव पावन । शक्तिपूर्वक त्याग भावना मंगल वर्धक मन-भावन ॥ शक्तिपूर्वक ही तप करना शुद्ध स्वरूप रूप संयम । साधु समाधि हृदय में हो बनना मुनिसेवा में सक्षम ॥ रोगी बाल वृद्ध मुनियों की सेवा ही है वैय्यावृत्य । हो अरहंत-भक्ति निज उर में नहीं कषायों का हो नृत्य ॥ हो आचार्य-भक्ति अन्तर में रत्नत्रय की हो उर शक्ति। उपाध्याय मुनि की सेवा हो यह उत्तम बहुश्रुत भक्ति । प्रवचन-भक्ति जिनागम श्रद्धा जिन-प्रवचन का हो बहुमान। षट् आवश्यक भाव द्रव्यमय अपरिहाणि आवश्यक जान इच्छाओं का निरोध करके जिनपथ की प्रभावना हो। साधर्मी से प्रीत सहज हो अब वात्सल्य भावना हो॥

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