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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/९१
तीर्थंकरपददायक सोलहकारण यही भावना हैं। दर्शविशुद्धि भावना के बिन शून्य समस्त भावना हैं। समकितपूर्वक एक भावना भी हो तो होता कल्याण । अष्टकर्म सब हो जाते हैं दहन प्राप्त होता निर्वाण ॥
(छंद - मानव) अन्तर्मन में हलचल हो तो उथल-पुथल होती है। यदि ज्ञान-नीर मिल जाए तो अन्तर्मल धोती है। फिर ज्ञान विराजित करता दोनों हाथों से भीतर। निज हित की बात सोचता निज चंदन लगता सुन्दर ॥ मन्तव्य आत्म-अक्षत का इसको पुलकित करता है। ज्ञातव्य विभाव भाव सब यह हर्षित हो हरता है। उर भेद-ज्ञान लाता है सारा मिथ्यात्व भगाकर । लाता है शुद्ध पुष्प यह अपना पुरुषार्थ जगाकर । मोहाग्नि बुझाऊँ दुखमय अनुभव रस चरु के द्वारा। अज्ञान-अग्नि नाचूँगा मैं ज्ञानदीप के द्वारा ॥ कर्माग्नि बुझाऊँगा मैं ध्रुव ध्यान-धूप के बल से। कामाग्नि बुझाऊँगा मैं प्रभु महाशील उज्ज्वल से । भव-अग्नि बुझाऊँगा मैं प्रभु महामोक्ष फल द्वारा। भव-ज्वाला शान्त करूँगा अपनी स्वशक्ति के द्वारा॥ इस भाँति प्रभो पूजन कर पूजन का फल पाऊँगा। सम्यग्दर्शन को पाकर शिवपथ पर मैं आऊँगा। जब पूजन हो जाएगी तो निज का ध्यान करूँगा। सामायिक उत्तम करके समता-रस-पान करूँगा। बस इतना ही करना है कृतकृत्य बनूँगा स्वामी। संसारमार्ग को क्षयकर शिवसुख पाऊँगा नामी॥ भव हलचल चंचलता तज पाना है मुझे अचलता। शिवपथ के आगे भाती है कभी न भव चंचलता॥