Book Title: Siddha Parmeshthi Vidhan
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Kundkund Pravachan Prasaran Samsthan

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Page 82
________________ श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/७९ महाग्रं (छंद - ताटक) निज स्वाभाविक दशा प्राप्त करने का ही उद्यम करना। दृष्टि द्रव्य निज पर ही रखना सकल विभाव भाव हरना॥ तुम चैतन्य ऋद्धि के स्वामी निरावरण निर्दोष त्रिकाल। निर्विकल्प सुख के सागर हो पर से निस्पृह श्रेष्ठ विशाल॥ अब निर्मल चैतन्य भावना हुई फलवती सौख्यापूर्ण। काललब्धि चरणों में आयी लेकर शाश्वत गुण आपूर्ण॥ ज्ञान-स्वभाव दृष्टि में लेकर केवलज्ञान प्रकट कर लो। समयसार का सार प्राप्तकर भवसागर को क्षय कर लो। है चेतन चिच्चमत्कार की महिमा ही जग में उत्तम । इसको ही पाने का पावनतम पुरुषार्थ श्रेष्ठ उद्यम ॥ गोत्रकर्म क्षय करना है तो सम्यक् पथ पर आ जाओ। दोनों गोत्र प्रकृतियाँ क्षय कर देहरहित अब हो जाओ॥ (दोहा) महा-अर्घ्य अर्पण करूँ, गोत्र कर्म हर नाथ। निज ज्ञायक का हे प्रभो, तर्जून पल भर साथ॥ ॐ ह्रीं गोत्रकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो महायँ निर्वपामीति स्वाहा। जयमाला (छंद - मानव) मिथ्यात्व मोह का झोंका मुझको उखाड़ देता है। मैं इससे लड़ता हूँ तो मुझको पछाड़ देता है। मोहादि विकारी भावों की छाया मुझको भायी। चिर विषय-कषाय वासना मेरे अंतर में छायी॥ सद्गुरु ने मुझे जगाया तब ज्ञानभाव उर आया। मिथ्यात्व मोह को क्षयकर मैंने समकित उपजाया॥

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