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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/८५
माया होती है तो आर्जव न कभी होता है।
____ लोभ होता है तो फिर शौच नहीं होता है। पाप होता है तो फिर पुण्य नहीं होता है।
पुण्य होता है तो फिर पाप नहीं होता है। दोनों होते हैं तो फिर धर्म नहीं होता है।
धर्म होता है तो पुण्य-पाप नहीं होता है। कर्म यह अंतराय दुखमय ही होता है।
इसके ही नाश से परिपूर्ण सौख्य होता है। आत्मसुख प्राप्ति में होता है यह सदा बाधक। इसका करते विनाश होते हैं जो दृढ़ साधक ॥
(दोहा) महा-अर्घ्य अर्पण करूँ, पाऊँ पद निर्वाण।
अपने ही बल से करूँ, मुक्ति-भवन निर्माण॥ ॐ ह्रीं अन्तरायकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये महायँ नि.।
जयमाला
(छंद - मानव) सुख हस्तान्तरित न होता अपना-अपना होता है। सुख को केवल वह पाता जो सुख को ही बोता है। डंके की चोट कहो तुम मैं ज्ञायक परमात्मा हूँ। निजरस को पीनेवाला मैं केवल शुद्धात्मा हूँ॥ जीवन को छंद बना लो बन्धों में नहीं बँधो तुम। परिभाषित करो स्वयं को अमृत के छूट पियो तुम॥ अभिव्यक्ति आत्मा की कर आत्मानुभूति सुख पाओ। अनुभवरस सिन्धुप्राप्तिहित निज अनुभवरस बरसाओ॥