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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/७६
पूजन क्र. ९ गोत्र कर्म विरहित श्री सिद्धपरमेष्ठी पूजन
स्थापना
(छंद - कुण्डलिया) गोत्रकर्म को नाश कर, हुए सिद्ध भगवन्त ।
अगुरुलघु गुण प्राप्त कर, हुए मुक्ति के कन्त ॥ हुए मुक्ति के कन्त अनन्तों गुण प्रकटाए। जितने दुर्गुण थे स्वामी सब ही विघटाए। शुद्ध आत्मबल से प्रकटाया आत्मधर्म को।
मैं भी नाश करूँ निज बल से गोत्रकर्म को॥ ॐ ह्रीं गोत्रकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिसमूह ! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। ॐ ह्रीं गोत्रकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिसमूह ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं गोत्रकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिसमूह ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्।
(छंद - विधाता) नीर सम्यक् हृदय लाकर भावना शुद्ध निज भाऊँ। जन्म-मरणादि रोगों को नाशकर शान्ति सुख पाऊँ। गोत्र दोनों प्रकृति नायूँ अगुरुलघु गुण सदा ध्याऊँ।
परावर्तन पंच क्षय हित सिद्ध प्रभु को सदा ध्याऊँ॥ ॐ ह्रीं गोत्रकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि.।
भवातप नाश करने को आपकी शरण आया हूँ। सहज चंदन भावनामय हृदय में आज लाया हूँ॥
गोत्र दोनों प्रकृति नायूँ अगुरुलघु गुण सदा ध्याऊँ। - परावर्तन पंच क्षय हित सिद्ध प्रभु को सदा ध्याऊँ॥ ॐ ह्रीं गोत्रकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो संसारतापविनाशनाय चंदनं नि.।