________________
श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/७०
कर्मोदय में इस शरीर के स्वामी बहुत जीव होते। साधारण शरीर प्रकृति यह क्षय कर जीव सुखी होते॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥७॥ ॐ ह्रीं साधारणनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.। .. कर्मोदय से द्वय त्रय चउ पंचेन्द्रिय में होता है जन्म।
यह त्रस प्रकृति विनाश करूँ मैं फिर न कभी लूँ हे प्रभु जन्म॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥७५॥ ॐ ह्रीं त्रसनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.। कर्मोदय से स्थावर तनधारी हो जाता प्राणी। यहं स्थावर प्रकृति विनायूँ हो जाऊँ मैं भी ज्ञानी ॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल ।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥७६॥ ॐ ह्रीं स्थावरनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
कर्म उदय से अन्य जीव को होता अपने प्रति राग। सुभग प्रकृति यह क्षयकर डालूँ करूँ आत्मा से अनुराग॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल ।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥७७॥ ॐ ह्रीं सुभगनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
कर्म उदय से अन्य जीव अपने प्रति करते रहते द्वेष । नामकर्म की दुर्भग प्रकृति विनाश करूँ बन निर्ग्रन्थेश॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल ।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥७॥ ॐ ह्रीं दुर्भगनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।