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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान / ७३
कर्म उदय से इस शरीर में सुन्दर प्रभा प्रकट होती । नामकर्म आदेय प्रकृति यह क्षीण आत्मबल से होती ॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख मूल ।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥ ८९ ॥ ॐ ह्रीं आदेयनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि. । कर्म उदय से इस शरीर में प्रभा नहीं होने पाती । नामकर्म की अनादेय प्रकृति स्वबल से क्षय पाती ॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख - मूल ।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥९०॥ ॐ ह्रीं अनादेयनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि. । कर्म उदय से जग में बहुत प्रशंसा होती प्राणी की । यशकीर्ति यह प्रकृति विनाशँ शरण प्राप्त हो ज्ञानी की ॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख मूल ।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥९१॥ ॐ ह्रीं यशकीर्तिनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि. । कर्म उदय से जग में निन्दा होती है इस प्राणी की । अयशकीर्ति यह प्रकृति विनाशँ शरण प्राप्त कर ज्ञानी की ॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख - मूल ।
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निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥९२॥ ह्रीं अयशकीर्ति नामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि.। प्रभु तीर्थंकर नाम कर्म से तीर्थंकर पद होता प्राप्त । वह तीर्थंकर प्रकृति विनाशँ सिद्ध स्वपद हो मुझको प्राप्त ॥ जबतक तीर्थंकर पद रहता है सिद्ध दशा न प्राप्त होती । चउ अघातिया शेष अतः सिद्धत्व प्रभा न व्याप्त होती ।। नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख - मूल ।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥ ९३ ॥ ॐ ह्रीं तीर्थंकरनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि./