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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/२३
महार्घ्य
(छंद - ताटक) ज्ञान समुच्चय महिमा हो तो ज्ञान हृदय में लहराता। ज्ञान-भावना पूर्वक चेतन स्याद्वाद ध्वज फहराता । ज्ञानभाव बिन भवदुख तरु की छाया में पलता आया। कभी न सम्यग्दर्शन पाया अत: न निज को सुलझाता॥ जिसने सम्यग्ज्ञान शक्ति का किया अवतरण अंतर में। वही आत्मा निज पुरुषार्थ शक्ति से सिद्ध स्वपद पाता॥ पाखण्डों के भवन गिराने का उपाय करता है ज्ञान । रूढ़िवाद के पर्वत ढाने का उपाय भी यह पाता। क्रियाकाण्ड के आडम्बर से दूर त्वरित हो जाता है। मुक्तिप्राप्ति का सतत यत्न भी यह निज अंतर में लाता॥ . मोक्षमार्ग पर चलने का उद्यम पवित्र करता है ज्ञान। अष्टकर्म को जय करता है पूर्णानन्द सौख्य पाता॥ ज्ञानावरणी कर्म नाश करने में है पूरा सक्षम। यही ज्ञान कैवल्यज्ञानयुत मोक्ष सौख्य उर में लाता॥
(दोहा) महा-अर्घ्य अर्पण करूँ, करूँ आत्मकल्याण।
ज्ञानावरणी नाश कर, पाऊँ केवलज्ञान ॥ ॐ ह्रीं ज्ञानावरणीकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो महायँ निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
(छंद - गीतिका) ज्ञान की जब भावना हो मनुज मिथ्याभाव हर। त्वरित ही सन्मार्ग पाता रुचि जगाता मनोहर ॥