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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/३८
फल मोक्ष प्राप्ति के हेतु, उत्तम फल लाऊँ। शुभ-अशुभ विकारी भाव, पर मैं जय पाऊँ॥ कर मोहनीय का नाश, समकित गुण पाऊँ।
क्षय अट्ठाईस प्रकृति, करूँ निज सुख पाऊँ॥ ॐ ह्रीं मोहनीयकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं नि.।
पदवी अनर्घ्य हित अर्घ्य, भावमयी लाऊँ। शुभ-अशुभ विकारी भाव, पर मैं जय पाऊँ॥ . कर मोहनीय का नाश, समकित गुण पाऊँ।
क्षय अट्ठाईस प्रकृति, करूँ निज सुख पाऊँ॥ ॐ ह्रीं मोहनीयकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.)
अर्ध्यावलि
(दोहा) मोहनीय की प्रकृति हैं, अट्ठाईस सुजान। इनको नाशे बिन नहीं, होता केवलज्ञान ॥ इनमें दर्शनमोह की, तीन प्रकृति दुखमूल। . चरित मोह पच्चीस हैं, मुक्ति-मार्ग में शूल॥
__(वीरछन्द) मोहनीय की है मिथ्यात्व प्रकृति भवसागर-दुख का मूल । जो सम्यग्दर्शन पाते हैं वे करते इसको निर्मूल ॥ मोहनीय का नाश करूँगा निज स्वभाव बल से स्वामी।
दर्शनमोह चारित्र मोह जीतूंगा अब अन्तर्यामी ॥१॥ ॐ ह्रीं मिथ्यात्वकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि. मोहनीय की सम्यक्त्व प्रकृति यह भी है मिथ्यात्व महान । सम्यग्दर्शन धारण करके कर दूंगा इसका अवसान ॥