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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/४४
है मोहनीय का नाश करूँगा निज स्वभाव बल से स्वामी।
दर्शनमोह चारित्र मोह जीतूंगा अब अन्तर्यामी ॥२५॥ ॐ ह्रीं संज्वलनकोधकर्मीवरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि./
मोहनीय की प्रकृति संज्वलन मान पूर्ण कर डालूँ नाश। मुनि निर्ग्रन्थ स्वपद धारण कर क्षमा धर्म का करूँ प्रकाश॥ मोहनीय का नाश करूँगा निज स्वभाव बल से स्वामी।
दर्शनमोह चारित्र मोह जीतूंगा अब अन्तर्यामी ॥२६॥ ॐ ह्रीं संज्वलनमानकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
मोहनीय की प्रकृति संज्वलन माया कर डालूँ नाश । मुनि निर्ग्रन्थ स्वपद धारण कर क्षमा धर्म का करूँ प्रकाश॥ . मोहनीय का नाश करूँगा निज स्वभाव बल से स्वामी।
दर्शनमोह चारित्र मोह जीतूंगा अब अन्तर्यामी ॥२७॥ ॐ ह्रीं संज्वलनमायाकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
मोहनीय की प्रकृति संज्वलन लोभ सदा को कर दूं नाश। मुनि निर्ग्रन्थ स्वपद धारण कर क्षमा धर्म का करूँ प्रकाश॥ मोहनीय का नाश करूँगा निज स्वभाव बल से स्वामी।
दर्शनमोह चारित्रमोह जीतूंगा अब अन्तर्यामी ॥२८॥ ॐ ह्रीं संज्वलनलोभकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि./
(वीरछन्द) भेद कषाय मोहनीय के ये हैं सोलह भवदुखरूप। इस सब भेदों से विरहित है शुद्ध आतमा निज चिद्रूप॥ तीन मोह के अरु पच्चीस कषायों की मिल अट्ठाईस। नाश करूँ ये सकल प्रकृतियाँ हो जाऊँ मैं त्रिभुवन ईश॥ पहले दर्शन मोह विनायूँ फिर चारित्र मोह कर नाश । क्षीण मोह फल पाकर स्वामी पाऊँ केवलज्ञान प्रकाश॥
पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्।