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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/५९
है नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल।।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥२१॥ ॐ ह्रीं आहारकबंधननामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।।
अब तैजस बंधन की प्रकृति विनाश करूँ अन्तर्यामी। पाँचों बंधन क्षय कर दूँ प्रभु ऐसा बल दो हे स्वामी॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥२२॥ ॐ ह्रीं तैजसबंधननामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
कार्माण बंधन की प्रकृति विनाश करूँ अन्तर्यामी। पाँचों बंधन क्षय कर दूँ प्रभु ऐसा बल दो हे स्वामी॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवें भवदुख मूल। निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥२३॥ ॐ ह्रीं कार्माणबंधननामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
औदारिक संघात प्रकृति को क्षय कर आत्मप्रकाश करूँ। अब संघात नामकर्म की पाँच प्रकृतियाँ नाश करूँ॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल ।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥२४॥ ॐ ह्रीं औदारिकसंघातनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये | अर्घ्य नि.।
वैक्रियक संघात प्रकृति को क्षयकर आत्मप्रकाश करूँ। अब संघात नाम कर्म की पाँच प्रकृतियाँ नाश करूँ॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥२५॥ ॐ ह्रीं वैक्रियकसंघातनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
आहारक संघात कर्म की प्रकृति नाथ मैं नाश करूँ। हैअब संघात नामकर्म की पाँच प्रकृतियाँ नाश करूँ॥