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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/५५
तृतीय प्रकृति गति मनुष्य नायूँ जो निजात्मा के प्रतिकूल। बिन संयम के पूर्ण व्यर्थ है भवदुखदायी है यह शूल॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल। निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥३॥ ॐ ह्रीं मनुष्यगतिनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
चौथी प्रकृति देवगति नारों लोभ कषायमयी प्रतिकूल। माला कब मुरझाएगी यह रहता सदा हृदय में शूल ॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल ।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥४॥ ॐ ह्रीं देवगतिनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.। पंच शरीर प्राप्त कर मैंने दुख पाए हैं अपरम्पार ।
औदारिक तन प्रकृति विनायूँ फिर न भ्रमूंगा प्रभु संसार॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥५॥ ॐ ह्रीं औदारिकशरीरनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि.।
प्रभु वैक्रियक शरीर प्राप्त कर भी दुख पाए घोर अनंत । प्रकृति वैक्रियक नाश करूँगा हो जाऊँगा मैं भगवंत ॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥६॥ ॐ ह्रीं वैक्रियकशरीरनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तयेअर्घ्य नि.।
आहारक तन भी न लाभप्रद मुनि बन करके जो पाया। इसका भी मैं नाश करूँगा यह विचार उर को भाया। नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल। निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥७॥ ॐ ह्रीं आहारकशरीरनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तयेअर्घ्य नि./