Book Title: Siddha Parmeshthi Vidhan
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Kundkund Pravachan Prasaran Samsthan

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Page 44
________________ श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/४१ प्रकृति जुगुप्सा सर्व विनायूँ अब मैं बन निर्मल स्वामी। कभी ग्लानि का भाव हृदय में उपजे. ना अन्तर्यामी॥ मोहनीय का नाश करूँगा निज स्वभाव बल से स्वामी। दर्शनमोह चारित्र मोह जीतूंगा अब अन्तर्यामी॥१२॥ ॐ ह्रीं जुगुप्साकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.। मोहनीय की अनन्तानुबंधी युत क्रोध प्रकृति कर नाश। अकषायी स्वभाव है मेरा उसका ही अब करूँ प्रकाश॥ मोहनीय का नाश करूँगा निज स्वभाव बल से स्वामी। दर्शनमोह चारित्र मोह जीतूंगा अब अन्तर्यामी ॥१३॥ ॐ ह्रीं अनन्तानुबंधीक्रोधकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.। मोहनीय की अनन्तानुबंधी युत मान प्रकृति कर नाश। अकषायी स्वभाव है मेरा उसका ही अब करूँ प्रकाश॥ मोहनीय का नाश करूँगा निज स्वभाव बल से स्वामी। दर्शनमोह चारित्र मोह जीतेंगा अब अन्तर्यामी ॥१४॥ ॐ ह्रीं अनन्तानुबंधीमानकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.। मोहनीय की अनन्तानुबंधी क्षय करूँ प्रकृति माया। निज स्वरूप ऋजुता का सागर आज दृष्टि में दरशाया॥ मोहनीय का नाश करूँगा निज स्वभाव बल से स्वामी। दर्शनमोह चारित्र मोह जीतूंगा अब अन्तर्यामी ॥१५॥ ॐ ह्रीं अनन्तानुबंधीमायाकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.। मोहनीय की अनन्तानुबंधी मय लोभ प्रकृति कर नाश। . अकषायी स्वभाव है मेरा उसका ही अब करूँ प्रकाश॥ KAL :

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