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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान / ३०
जयमाला
(छंद - गीतिका) आत्मदर्शन के बिना गुण दर्शनीय न मिलेगा । विमल ज्ञाता विमल दृष्टा गुण सुमन न खिलेगा ॥ आत्मशक्ति अचिन्त्य महिमावंत को मेरा प्रणाम । प्रकट जो कर चुके उन भगवंत को मेरा प्रणाम ॥ चिदानंद चिदेश का साम्राज्य है अचलित अटल । है अगोचर ज्ञान गोचर स्वयं में रहता अचल ॥ आत्मा ही तीर्थ है शुद्धात्मा जयवंत है । यही तो परमात्मा है यही तो भगवंत है ॥ सुख स्वरूपी आत्मसागर में उतरना चाहिए । आत्म- भुजबल से भवोदधि शीघ्र तरना चाहिए ॥ ज्ञान पाने की कला जिनशास्त्र से मिल जाएगी । शान्ति पाने की कला जिनशास्त्र से झिल जाएगी ॥ आत्म की अनुभूति - विधि जिनशास्त्र में मिल जाएगी। अनुभूति निज की शान्तिप्रद इनमें न मिलने पाएगी ॥ स्वानुभव से प्राप्त होती है सहज अनुभूति निज । दृष्ट होती स्वगुण - दर्शन से सहज अनुभूति निज ॥ दर्शनावरणी बिना क्षय के न होता आत्मसुख । रहेगा भव - जाल में ही पाएगा संसारदुःख ॥ अत: अपनी आत्मा का विनय से दर्शन करें । प्राप्त कर सम्यक्त्व वैभव सदा ही वन्दन करें ।
ॐ ह्रीं दर्शनावरणकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो जयमालापूर्णार्घ्यं नि. स्वाहा ।
आशीर्वाद
(दोहा)
क्षय दर्शन आवरण कर, पाऊँ पद निर्वाण | अपने ही बल से करूँ, मुक्ति - भवन निर्माण ॥ इत्याशीर्वादः ।