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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/२९
(वीरछंद) छद्मस्थों को पहले दर्शन होता फिर होता है ज्ञान । किन्तु केवली प्रभु को होता युगपत ही दर्शन अरु ज्ञान॥ ज्ञानावरणी सदा ज्ञान गुण का बाधक है पहचानो। दर्शन आवरणी दर्शन गुण का बाधक है यह जानो। ज्ञानावरणी दर्शन आवरणी का क्षय एक संग होता। अत: केवली को दर्शन अरु ज्ञान सदा युगपत होता॥ क्योंकि मनःपर्यय सुज्ञान मतिज्ञान पूर्वक ही होता। अतः मन:पर्यय दर्शन आवरण कर्म भी ना होता ॥
पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् ।
महार्घ्य
(छंद - मानव) . अपना पुरुषार्थ जगाकर विधिपूर्वक शिवपथ पाऊँ। रत्नत्रय की निधियाँ पा हे प्रभु पण्डित हो जाऊँ ॥ रागादि विकारी भावों का नाम न रहने दूँ अब । अनुभव रस वर्षा रिमझिम हे प्रभु सदैव ही पाऊँ। गुण नक्षत्रों तारों सम अन्तर्नभ चमके मेरा । कैवल्यज्ञान रवि पाकर महिमामय ध्रुव द्युति पाऊँ। सिद्धत्व स्वगुण की आभा मेरे मस्तक पर दमके। त्रैलोक्य शिखर के ऊपर शाश्वत निज वैभव पाऊँ॥ दर्शन आवरणी क्षय कर दर्शन गुण निज प्रकटाऊँ। संसार भाव सारा ही हे प्रभु अब तो विघटाऊँ।
(दोहा) महा-अर्घ्य अर्पण करूँ, पाऊँ स्वगुण महान।
क्षय दर्शन आवरण कर, करूँ आत्मकल्याण ॥ ॐ ह्रीं दर्शनावरणीकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो महायँ निर्वपामीति स्वाहा।।