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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/१६
अंतराय से रहित सर्वथा शाश्वत सुख का है सागर।
भावसहित मैं अर्घ्य चढ़ाऊँ भर अनुभव रस गागर ॥ ॐ ह्रीं अनंतवीर्यगुणसमन्वितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्योअर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
महाऱ्या - (छंद - ताटक) ज्ञानावरणी के अभाव से पूर्ण ज्ञान गुण आता है। दर्शन आवरणी के क्षय से दर्शन गुण निज आता है। वेदनीय के अभाव से अव्याबाधी गुण आता है। मोहनीय के अभाव से ही क्षायिक समकित आता है। आयुकर्म के अभाव से ही अवगाहनत्व आता है। नामकर्म के अभाव से सूक्ष्मत्व सुगुण हर्षाता है। गोत्रकर्म के अभाव से गुण अगुरुलघु उर आता है। अंतराय के अभाव से गुण अनंतवीर्य सज आता है। ये आठों ही गुण आठों कर्मों के क्षय से आते हैं। जो आठों ही गुण पा लेते वही सिद्ध हो जाते हैं। मैं भी ऐसा यत्न करूँ प्रभु सम्यग्दर्शन प्रकटाऊँ। फिर संयम ले श्रेणी चढ़कर अष्टकर्म घन विघटाऊँ॥ निश्चित अष्ट स्वगुण मेरे भीतर प्रकटेंगे हे स्वामी। गुण अनंत से शोभित हो पाऊँगा ध्रुव सुखनामी ॥
(छंद - मानव) रागादि भाव का बंधन भव-भव तक दुख देता है। अज्ञानभाव के कारण सुख सभी छीन लेता है। विपरीत विनय संशय अरु एकान्त महादुख देता। पाँचों मिथ्यात्व भाव ही प्रतिपल अनंत दुख देता।
que no me aware