Book Title: Siddha Parmeshthi Vidhan
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Kundkund Pravachan Prasaran Samsthan

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Page 20
________________ श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/१७ पहले मिथ्यात्व विनाशो फिर व्रत का भाव धरो उर। बिन समकित जप तप संयम चहुँगति दुख ही देता है। समकित ले अविरति नाशो जीतो प्रमाद को तत्क्षण। संयम हो जाता है तो सारे ही सुख देता है। (दोहा) . महा-अर्घ्य अर्पण करूँ, मुख्य अष्टगुण हेतु। इस जीवन में प्राप्त हो, गुण अनंत का सेतु॥ ॐ ह्रीं अष्टगुणसमन्वितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो महायँ निर्वपामीति स्वाहा। जयमाला (छंद - दिग्वधू) प्रभु जन्म जरा का दुख, मुझसे न सहा जाता। हर बार मरण का दुख, पीड़ा बहु पहुँचाता॥ भवज्वर की पीड़ा से, मैं आकुल-व्याकुल हूँ।..... गुणं शीतल शान्त न हो, तो सदा अनाकुल हूँ॥ क्षत भावों के कारण, अक्षत गुण घात किए। अक्षय पद नहीं मिला, ध्रुव सुख नाहीं प्राप्त किए। चिर कामबाण का दुख, पीड़ा बहु पहुँचाता। गुण शील पुष्प के बिन निष्काम न सुख आता॥ यह क्षुधारोग मुझको, देता अनादि से दुख। निज अनाहार पद बिन मिलता न रंच भी सुख। भ्रमतम का अँधियारा होने न ज्ञान देता। जगती है बुद्धि कभी तो उसको हर लेता ।। बिन ध्यानधूप के प्रभु सम्यक् न ध्यान होता। पद नित्य निरंजन बिन क्या सुख महान होता।

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