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' श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/१८
फल मोक्ष नहीं पाया भव-भव में भटका हूँ। परभावों में ही प्रभु अबतक मैं अटका हूँ॥ भव के ही अर्घ्य बना निज दुख ही उपजाया। पदवी अनर्घ्य के हित निज को न कभी ध्याया॥ हे सिद्ध परमेष्ठी प्रभु तुमको ही नित ध्याऊँ। तुव शरण प्राप्त करके तुम-सम ही बन जाऊँ॥ इसलिए करूँ पूजन वन्दन अर्चन स्वामी। शाश्वत शिव-सुख दे दो अब तो अन्तर्यामी॥ भव भाव अभाव करूँ शाश्वत स्वभाव पाऊँ।
आनंद अतीन्द्रिय की धारा उर में लाऊँ ॥ ॐ ह्रीं अष्टगुणसमन्वितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो जयमालापूर्णायं नि. ।
आशीर्वाद
(वीरछन्द) श्री सिद्धपरमेष्ठी प्रभु के वसु गुण पूजे मैंने आज । निज स्वभाव की महिमा पाकर पाऊँ अपना निजपदराज॥ श्री सिद्ध परमेष्ठी प्रभु के विधान का है यह उद्देश्य । भवदुख क्षय हों कर्म नाश हो जिन गुण सम्पति मिले विशेष॥
इत्याशीर्वादः।
कर्मोदय क्षय क्षयोपशम, उपशम से निरपेक्ष । सहज शुद्ध निर्मल अहो ! ज्ञायकभाव अखेद ।।