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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान / ११
वीतराग हो सर्व हितैषी राग-द्वेष का नाम नहीं । चिदानन्द चैतन्य स्वभावी कृतकृत्य कुछ काम नहीं ॥ स्वयं सिद्ध हो स्वयं बुद्ध हो स्वयं श्रेष्ठ समकित आगार । गुण अनन्त दर्शन के स्वामी तुम अनंत गुण के भण्डार ॥ तुम अनन्त बल के हो धारी ज्ञान अनन्तानन्त अपार । बाधा रहित सूक्ष्म हो भगवन् अगुरुलघु अवगाह उदार ॥ सिद्ध स्वगुण के वर्णन तक की मुझमें प्रभुवर शक्ति नहीं । चलूँ तुम्हारे पथ पर स्वामी ऐसी भी तो भक्ति नहीं ॥ देव तुम्हारा पूजन करके हृदयकमल मुसकाया है । भक्ति भाव उर में जागा है मेरा मन हर्षाया है ।। तुम गुण का चिन्तवन करे जो स्वयं सिद्ध बन जाता है। हो निजात्म में लीन दुखों से छुटकारा पा जाता है ॥ अविनश्वर अविकारी सुखमय सिद्ध स्वरूप विमल मेरा । मुझमें है मुझसे ही प्रकटेगा स्वरूप अविकल मेरा ॥ ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिने जयमालापूर्णार्थं नि. ।
आशीर्वाद
(दोहा)
शुद्ध स्वभावी आत्मा, निश्चय सिद्ध स्वरूप।
गुण अनन्तयुत ज्ञानमय, है त्रिकाल शिवभूप ॥ पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्
जाप्य मंत्र - ॐ ह्रीं श्री अनन्तानन्तसिद्धपरमेष्ठिभ्यो नमः ।
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