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उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निष्प्रतीकारे । धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ।। १२२ अन्तः क्रियाधिकरणं तपः फलं सकलदर्शनः स्तुवते । तस्माद्यावद्विभवं समाधिकरणे प्रयतितव्यम् ॥ १२३ स्नेहं वैरं सङग परिग्रहं चापहाय शुद्धमनांः । स्वजनं परिजनमपि च क्षान्त्वा क्षमयेत् प्रियैर्वचनैः । १२४ आलोच्य सर्वमेनः कृतकारितमनुमतं च निर्व्याजम् । आरोपयेन्महाव्रत मामरणस्थायि निःशेषम् १२५ शोकं भयमवसादं क्लेदं क लुष्यमरतिमपि हित्वा । सत्त्वोत्साहमुदीर्य च मनः प्रसाद्यं श्रुतैरमृतै ॥ १२६ आहारं परिहाप्य क्रमशः स्निग्धं विवर्धयेत्पानम् । स्निग्ध च हापयित्वा खरपानं पूरयेत्क्रमशः ।। १२७ खरपानहापनामपि कृत्वा कृत्वोपवासमपि शक्त्या । पंचनमस्कारमनास्तनुं त्यजेत्सर्वयत्नेन ॥ १२८ जीवितमरणाशंसे भयमित्र स्मृतिनिदाननामानं । सल्लेखनातिचाराः पंच जिनेन्द्रः समादिष्टा ।। १२९ निःश्रेयसमभ्युदय निस्तीरं दुस्तरं सुखाम्बुनिधिम् । निष्पिबति पीतधर्मा सवैर्दुखरनालीढः ।। १३०
रत्नकरण्ड श्रावकाचार
रादि देना, दान देने को और दानविधिको भूल जाना तथा अन्य दाताके साथ मत्सर भाव रखना । इनका त्यागकर दान देना चाहिए ।। १२१
इस स्वामिसमत्तभद्राचार्यविरचित रत्नकरण्डक नामवाले उपासकाध्ययन में शिक्षाव्रतों का वर्णन करनेवाला पाँचवाँ अध्ययन समाप्त हुआ ।
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अब आचार्य सल्लेखनाका वर्णन करते हैं - निष्प्रतीकार उपसर्ग दुर्भिक्ष, बुढापा और रोगके उपस्थित होनेपर धर्म की रक्षाके लिए शरीरके परित्याग करनेको आर्य पुरुष सल्लेखना कहते हैं ।। १२२ ।। जीवन के अन्त समय में संन्यासरूप क्रियाका आश्रय लेना ही जीवन भरकी तपस्याका फल है, ऐसा सर्वदर्शी भगवन्तोंने कहा हैं । इसलिए जबतक शक्ति रहे, तब तक समाधिमरण करनेमें प्रयत्न करते रहना चाहिए ।। १२३ ।। सल्लेखना धारण करते हुए कुटुम्ब - मित्रादिसे स्नेह दूर कर, शत्रुजनोंसे बैर भाव हटाकर, बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रहका परित्यागकर, शुद्ध मन होकर स्वजनों और परिजनों को क्षमा करके प्रिय वचनोंके द्वारा उनसे भी क्षमा माँगे || १२४ ।। पुनः जीवन भरके कृत, कारित और अनुमोदित सर्वपापोंकी निश्छल भावसे आलोचना करके मरणपर्यन्त स्थिर रहने वाले सर्व महाव्रतोंको धारण करे ।। १२५ ।। इस प्रकार सल्लेखना स्वीकार करनेके पश्चात् शोक, भय, विषाद, क्लेश, कालुष्य और अरति भावको भी छोड़कर बल और उत्साहको प्रकटकर अमृतमय श्रुतके वचनोंसे मनको प्रसन्न रखे ||१२६ || साथ ही क्रम से अन्नके आहारको घटाकर दुग्धादिरूप स्निग्धपानको बढ़ावे । पुनः क्रमसे स्निग्धपानको भी घटाकर छांछ- उष्णजल आदि खर- पानको बढ़ावे ।। १२७ ।। पुनः धीरे-धीरे खर- पानको घटाकर और अपनी शक्तिके अनुसार उपवासको भी करके पंचनमस्कार मंत्रको मनमें जपते और उसका चिन्तवन करते हुए सम्पूर्ण प्रयत्नके साथ सावधानीपूर्वक शरीरको छोडे । १२८ ॥ जिनेन्द्र देवोंने सल्लेखनाके ये पाँच अतिचार कहे है -- सल्लेखना स्वीकार करनेके पश्चात् जीनेकी आकांक्षा करना, मरनेकी आकांक्षा करना, परीषहउपसर्गादिसे डरना, मित्रोंका स्मरण करना और आगामी भवमें सुख पाने के लिए निदान करना । इनसे रहित हो करके ही समाधिमरण करना चाहिए ।। १२९ ।। अब आचार्य अतीचार रहित सल्लेखना करनेका फल बतलाते है - जिसने रत्नत्रयरूप धर्मका पान किया है, ऐसा पुरुष सर्व दुःखोंसे रहित होकर उस निःश्रेयरूप सुखके सागरका अनुभव करता हैं, जो निस्तीर है जिसका अन्त नहीं है और जो अतिदुस्तर है - जिसका पाना अति कठिन हैं, ऐसे अहमिन्द्रादि पदरूप अभ्युदयका
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