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श्रमण विद्या-२ __ वार्तिककार ने चारित्र रूप कारण का महत्त्व बताते हुए लिखा है-यह सामायिकादि भेद रूप चारित्र पूर्व आस्रवों के निरोध रूप होने से परम-संवर का कारण है।३४
द्रव्यसंग्रह के टीकाकार ने लिखा है कि व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय तथा अनेक प्रकार का चारित्र ये सब भावसंवर के विशेष जानने चाहिए। टीकाकार ने विश्लेषण करते हुए लिखा है कि निरास्रव शुद्धात्म तत्त्व की परिणति रूप संवर की कारणभूत बारह अनुप्रेक्षा हैं । अर्थात् शुद्धात्मानुभूति तो संवर में कारण है, और अनुप्रेक्षा तथा अन्य समिति, गुप्ति आदि संवर के उस कारण के भी कारण हैं ।३५ आगे टीकाकार ने लिखा है कि भावसंवर के कारणभूत व्रत, समिति, गुप्ति धर्म, द्वादशानुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र इनमें निश्चय रत्नत्रय को साधनेवाला जो व्यवहार रत्नत्रय रूप शुभोपयोग है, उसका निरूपण करनेवाले जो वाक्य हैं, वे पापास्रव के संवर में कारण जानना चाहिए। और जो व्यवहार रत्नत्रय से साध्य शुद्धोपयोग रूप निश्चय रत्नत्रय के प्रतिपादक वाक्य हैं, वे पुण्य और पाप दोनों आस्रवों के संवर के कारण होते हैं ।३६
अर्धमागधी प्राकृत आगमों में संवर शब्द का उल्लेख सर्वप्रथम आचारचूला में एक बार हुआ है। परन्तु यहाँ संवर को परिभाषित नहीं किया गया है। महावीर के विहार के मन्दर्भ में कहा गया है कि श्रमण भगवान महावीर शरीर के प्रति ममत्व त्यागकर अनुत्तर आलय, अनुत्तर विहार, अनुत्तर संयम, अनुत्तर प्रग्रह, अनुत्तर संवर, अनुत्तर तप, अनुत्तर ब्रह्मचर्यवास, अनुत्तर क्षमा, अनुतर अनासक्ति, अनुत्तर तुष्टि, अनुत्तर समिति, अनुत्तर गुप्ति, अनुत्तर स्थान, अनुत्तर कार्य, अनुत्तर सुचरित के फलस्वरूप निर्वाण और मुक्ति मार्ग से आत्मा को भावित करते हुए विहार करते थे ।३७
सूत्रकृताङ्ग में संवर शब्द का उल्लेख सात प्रसंगों में हुआ है। जगत्कर्तृत्व के विषय में विभिन्नमतों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि जो दुःख और
३४. तत्त्वार्थवार्तिक, ९।४ । ३५. द्रव्यसंग्रह टीका, ३५ ।
वही, टीका ३५। ३७. तओ ण समणे भगवं महावीरे वोसठ्ठचत्तदेहे अणुत्तरेणं आलएणं,
अणुत्तरेणं विहारेणं, अणुत्तरेणं संजमेणं, अणुत्तरेणं परगहेण, अणुत्तरेणं संवरेणं,... ....... अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ।
-आचारचूला १५३६ । संकाय पत्रिका-२
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