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श्रमण विद्या-२ को ही प्राप्त करता है ।२२ इसी को विश्लेषित करते हुए आगे लिखा है-आत्मा को आत्मा के द्वारा जो पुण्य-पापरूपी शुभाशुभ योगों को रोककर दर्शन-ज्ञान में स्थित, अन्य वस्तु की इच्छा से विरत, जो आत्मा सर्वसंग से रहित, अपने आत्मा को आत्मा के द्वारा ध्याता है, तथा कर्म और नोकर्म को नहीं ध्याता, एकत्व चैतन्य का ही चिन्तवन करता है, वह आत्माको ध्याता हुआ दर्शन-ज्ञानमय और अनन्यमय होता हुआ अल्पकाल में ही कर्मों से रहित आत्मा को प्राप्त करता है ।२3
अन्यत्र कहा गया है कि जिसे सर्व द्रव्यों के प्रति राग, द्वष या मोह नहीं है, उस समसुख-दुःख भिक्षुको शुभ और अशुभ-कर्म आस्रवित नहीं होते ।२४ जब जिस विरत व्यक्ति के पुण्य और पाप में से कोई भी योग नहीं होता, तब उसे शुभाशुभ भाव कृत कम का संवर होता है ।२५
बारस अनुवेक्खा में लिखा है कि मन, वचन, काय की शुभ प्रवृत्तियों से अशुभयोग का संवर होता है और शुद्धोपयोग से शुभयोग का भी संवर हो जाता है ।२६
समयपाहडसुत्त आत्मख्याति में अमृतचन्द्र ने लिखा है-भेद विज्ञान से शद्धात्मा की उपलब्धि होती है और शुद्धात्मा की उपलब्धि से राग-द्वेष मोह का अभाव रूप संवर होता है ।२७
___ द्रव्यसंग्रह के टीकाकार ने लिखा है कि कर्मो के आस्रव को रोकने में समर्थ स्वानुभव में परिणत जीव के शुभ तथा अशुभ कर्मों के आने का निरोध संवर है ।२८
कुन्दकुन्द ने बारस अणुवेक्खा में लिखा है कि पाँच महाव्रतों से नियम
२२. समयपाहुडसुत्त, गा० १८६ । २३. वही, गा० १८७-१८१ । २४. जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो व सव्वदम्वेसु । __णासवदि सुहं असुहं समसुहदुक्खस्स भिक्खुस्स।
-पंचत्थिकायपाहुडसुत्त, गा० १४२ । २५. वही, गा० १४३ । २६. सुहजोगेसु पवित्ती संवरणं कुणदि असुहजोगस्स । सुहजोगस्स णिरोहो सुधुवजोगेण संभवदि ।।
-बारस अणुवेक्खा, गा० ६३ । २७. समयपाहुडसुत्त, आत्मख्याति, गा० २८३ । २८. द्रव्यसंग्रह टीका, गा० २८ ।
संकाय पत्रिका-२
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