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श्रमण विद्या-२ ___ तत्त्वार्थसूत्र के वार्तिककार भट्ट अकलंक ने संवर को स्पष्ट करते हुए दूसरे शब्दों में कहा है कि जिसके द्वारा रोका जाये वह संवर है, अथवा रुकने की क्रियामात्र संवर है अर्थात् रुकना संवर है ।१४ इसी को उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हुए आगे लिखा है कि जिस प्रकार किसी नगर के द्वार अच्छी तरह बन्द हों तो वह नगर शत्रुओं को अगम्य होता है, उसी प्रकार गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चरित्र से सुसंवृत कर लिया है इन्द्रिय, कषाय तथा योग जिसने ऐसी आत्मा के नये कर्मो का द्वार बन्द हो जाना संवर है ।१५ अन्यत्र लिखा है कि कर्मों के आगमन के निमित्तों का अप्रादुर्भाव आस्रव का निरोध है। उस आस्रव का निरोध होने पर तत्पूर्वक कर्मों का ग्रहण नहीं होना संवर है। मिथ्यादर्शनादि प्रत्ययों का निरोध होने पर उनसे आने वाले कर्मों का रुकना संवर है।
संवर को विश्लेषित करने में उसके भेदों से भी पर्याप्त सहायता मिलती है। इन भेदों को सामान्यतया दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है
१. आध्यात्मिक व्याख्या करने वाले । २. सामान्य या आचारपक्षीय व्याख्या करने वाले ।
यद्यपि ये दो प्रकार परस्पर सर्वथा असम्बद्ध नहीं हैं, तथापि दोनों में मौलिक अन्तर है।
संबर के द्रव्य और भाव ये दो भेद शौरसेनी तथा अर्धमागधी दोनों ही परम्पराओं में प्राप्त होते हैं। निश्चय और व्यवहार संवर के रूप में भी दो भेद किये जाते हैं । इससे संवर के आभ्यन्तर तथा बाह्य स्वरूप और उसके कारणों पर प्रकाश पड़ता है। निश्चय संवर के विवेचन में शास्त्रकारों ने उस अध्यात्ममार्ग का निरूपण किया है, जिससे शुभ-अशुभ अथवा पुण्य-पाप रूप कर्मों के आने का निरोध होता है । व्यवहार संवर के विवेचन में उस आचार मार्ग का वर्णन किया है, जिससे कर्मो का आगमन रुकता है।
कुन्दकुन्द ने समयपाहुडसुत्त में आस्रव और संवर नामक दो प्रकरणों में इनकी स्वतन्त्र रूप से आध्यात्मिक व्याख्या की है । १६
१४. संवियतेऽनेन संवरणमात्रं वा संवरः ।-तत्त्वार्थवातिक १/४ । १५. वही, ९/१। १६. समयपाहुडसुत्त, आस्रवाधिकार, गाथा १६४-१८०, संवराधिकार, गाथा
१८१-१९२ ।
संकाय पत्रिका-२ .
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