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श्रमण परम्परा में संवरं
होता है । आगे लिखा है कि जिस संयत के मन, वचन, काय के व्यापार स्वरूप योग में जब न शुभ परिणाम रूप पुण्य रहता है और न अशुभ परिणाम रूप पाप रहता है, तब उसके शुभाशुभ रूप कर्मों का संवर होता है ।" अन्यत्र कहा है कि मिथ्यत्व, अज्ञान, अविरति भाव और योग इन हेतुओं का अभाव होने के कारण नियम से ज्ञानी जीव के आस्रवका निरोध होता है ।"
भगवती आराधनाकार ने संवर के स्वरूप को निर्देशित करते हुए लिखा है कि जिन सम्यग्दर्शनादि परिणामों से अथवा गुप्ति, समिति आदि परिणामों से मिथ्यादर्शनादि परिणाम रोके जाते हैं, वे रोकने वाले परिणाम संवर कहे जाते हैं
नयचक्र में कहा गया है कि जैसे नाव के छिद्र रुध जाने पर उसमें जल प्रवेश नहीं करता, उसी प्रकार मिथ्यात्वादि परिणामों का अभाव हो जाने पर जीव कर्मों का संवर होता है, अर्थात् नवीन कर्मास्रव नहीं होता । "
तत्त्वार्थ सूत्रकार ने लिखा है कि आस्रव का रुकना संवर है । १३ संवर की इस परिभाषा को देखने से आस्रव की परिभाषा जानने की बात सामने आ जाती है | शरीर, वचन और मन की प्रवृत्ति अर्थात् क्रिया को आस्रव कहा गया है । इस प्रवृत्तिका रुकना या रोकना संवर है ।'
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इंदिकसासण्णा णिग्गहिदो जेहि सुट्टु मग्गमि । जावत्तावतेहि पहियं पावासवच्छिद्द ॥
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- पंचत्थिकायपाहुडसुत्त, गा० १४१ ।
जस्स जदा खलु पुण्णं जोगे पावं च णत्थि विरदस्स । संवरणं तस्स तदा सुहासुह कदस्स कम्मस्स ॥ -वही, गा० १४३ । मिच्छत्तं अण्णाणं अविरयभावो य जोगो य । उ अभावे नियमा जायदि णाणिस्स आसवणिरोहो ||
भगवती आराधना, गा० ३८ ।
णासवदि ।
रुधि छिद्दसहस्से जलजाणे जह जलं मिच्छत्ताइअभावे तह जीवे संवरो होई ! - बृहद् नयचक्र, १५६ गा० । १२. आस्रवनिरोधः संवरः । - - तत्त्वार्थ सूत्र ९/१ । १३. कायवाङमनःकर्म योगः । स आस्रवः । -
-वही ६ / १, २ ।
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- समयपाहुडसुत्त, संवराधिकार गा० १९०-९१ ।
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संकाय पत्रिका - २
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