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श्रमरण परम्परा में 'संवर'
श्री कमलेश जैन
संवर शब्द का प्रयोग प्राचीन भारतीय वाङ्मय में एक विशिष्ट अर्थ में हुआ है । प्राचीन भारतीय साहित्य के अनुशीलन से संवर शब्द के विश्लेषण पर महत्त्व - पूर्ण एवं रोचक प्रकाश पड़ता है। प्राचीन भारतीय श्रमण परम्परा में संवर शब्द संभवतया समानरूप से प्रयुक्त होता था । बाद में जैन और बौद्ध श्रमण परम्पराओं में इसे विशेष रूप से अपनाया गया। इसके अर्थ का विकास धार्मिक एवं दार्शनिक सन्दर्भों में विशेष रूप से किया गया ।
संवर का सामान्य अर्थ निग्रह, नियन्त्रण या नियमन है । इन्द्रियों की प्रवृत्तियों का नियमन योग का आवश्यक अंग है । इसी अर्थ में संवर शब्द का प्रयोग मन, वचन और काय की प्रवृत्ति का नियमन किया गया है ।
जैन परम्परा के २३वें तीर्थंकर पार्श्व 'चाउज्जामसंवर' के उपदेष्टा माने जाते हैं । जैन और बौद्ध साहित्य में इसका समान रूप से विवरण मिलता है ।
प्राकृत आगमों में पार्श्व के 'चाउज्जाम' का स्पष्ट वर्णन प्राप्त होता है । पालि त्रिपिटक में भी निगण्ठनातपुत्त को 'चातुयामसंवरसंवुतो' कहा गया है | बुद्ध अपने उपदेशों में भिक्षुओं को विभिन्न प्रकार के संवर का उपदेश देते हैं ।
संस्कृत साहित्य प्रायः अपने पूर्ववर्ती प्राकृत या पालि साहित्य के सन्दर्भ में संवर की व्याख्या करता है, तथापि इसके अर्थ विश्लेषण को विस्तार एवं सूक्ष्मतर स्तर तक पहुँचाता है ।
यहाँ प्राकृत, पालि और संस्कृत साहित्य के मूल सन्दर्भों में 'संवर' का विश्लेषण करने का प्रयत्न किया जायेगा ।
ठाणाङ्ग नामक प्राकृत आगम में संवर के चार प्रकारों का स्पष्ट निर्देश किया गया है ।" उत्तराध्ययन में पार्श्व की परम्परा के वयोवृद्ध श्रमण केशी तथा महावीर के प्रधान शिष्य गौतम के वार्तालाप का विवरण मिलता है । वेशी गौतम सव्वाओ पाणातिवायाओ वेरमणं । सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं । सव्वाओ अदिन्नादाणाओ वेरमणं । सव्वाओ बहिद्धादाणाओ वेरमणं ।
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—-ठाणाङ्ग ४:१३६। संकाय पत्रिका - २
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