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श्रमण विद्या - २
से पार्श्व के 'चाउज्जामधम्म' और महावीर के पंचसिक्खियधम्म' के विषय में चर्चा करते हैं । पालि सामञ्ञफलसुत्त में निगठनातपुत्तको 'चातुयामसंवरसंवुतो' कहा गया है । यहाँ संवर के जो चार प्रकार बताये गये हैं, वे ठाणाङ्ग से भिन्न प्रकार के हैं । पालिग्रन्थों में प्राप्त संवर के अन्य विवरण से भी वे अलग प्रतीत होते हैं । सामञ्ञफल पूंछने पर निगण्ठनातपुत्त ने अजातशत्रु से कहा कि निगण्ठ 'चातुयामसंवरसंवृत' होता है । वह चातुयामसंवर इस प्रकार है
१. सब्बवारिवारितो ।
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२. सब्बवारियुतो ।
३. सब्बवारिधुतो ।
४. सब्बवारिफुटो |
एक अन्य प्रसंग में गौतम बुद्ध ने निग्रोध को सम्बोधित करते हुए जो चार संवर बताये हैं" वे ठाणाङ्ग से प्रायः मेल खाते हैं ।
संवर की गणना शौरसेनी तथा अर्धमागधी प्राकृत आगम परम्पराओं में सात तत्त्वों या नौ पदार्थों में की गई है । आगे चलकर संस्कृत ग्रन्थकारों ने भी आगमों का अनुसरण किया ।
जैन और बौद्ध परम्परा में संवर शब्द के अर्थविकास का अवलोकन उनके साहित्य के आलोक में करने पर विशेष जानकारी प्राप्त होती है । कुन्दकुन्द ने पंचत्थिकाय पाहुडत्त में कहा है कि जो भलीभाँति मार्ग में रहकर इन्द्रिय, कषाय, और संज्ञाओं का जितना निग्रह करता है, उसका उतना पाव-आस्रव का छिद्र बन्द
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उत्तराध्ययन, अध्ययन २३ । दीघनिकाय, १|२|
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वही, १२
इध, निग्रोध तपस्वी चातुयामसंवरसंवुतो होति । कथं च निग्रोध, तपस्वी चातुयाम-संवर-संवृतो होति ? इध, निग्रोध, तपस्वी न पाणं अतिपावेति, न पण अतिपातयति, न पाणमतिपातयतो समनुञ्ञो होति; न अदिन्नं आदियति,
अदिन्न आदियापेति, न अदिन्नं आदियतो समनुज्ञो होति, न मुसा भति, न मुसाभणापेति, न मुसा भणतो समनुज्ञो होति, न भावितमासीसति, न भावितमासीसापेति, न भावितमासीसतो समनुज्ञो होति । एवं खो, निग्रोध, तपस्वी चातुयामसंवरसंवृतो होति । - दीधनि०, ३|२| पंचत्थि काय ० २।१०८, द्रव्यसंग्रह २८, ठाणाङ्ग ९/६, उत्तराध्ययन २८ १४, तत्त्वार्थसूत्र १।४।
संकाय पत्रिका - २
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